Saturday 7 January 2012

काव्य- रूप

कविता का सौंदर्य, संवेदना, शिल्प,
सुचिन्तन की श्रेष्ठता,
भाषा-सौष्टव, प्रेम की अभेद्यता
कविता छान्देयता का प्रतिरूप है
कविता अंधकार के बीच
सोनाली, बहुरंगी धूप है
वर्ना कविता शब्द अंध-कूप है।


देश-प्रेम  (02.1.12)
निष्काम जन-सेवा
राष्ट्रीयता, देश-धर्म की पहली शर्त है
इसके बिना लोभी, भ्रष्टाचारी नेता की
अनर्गल देश-सेवा व्यर्थ है
समर्पण, आस्था और विश्वास के ढांचे में ही
अस्तित्व पलता है
मनुष्य का होना ही प्रेम का अर्थ है।

अतीत का मोह बंधन  (03.1.12)
अतीत के पीछे भागने से
कुछ हाथ नहीं आता है
स्मृतियों के कुहासे में
जीवन के मधुमय क्षणों को खोजना
सदा ही व्यर्थ हो जाता है
चाहे जितना जैसे भी यत्न करता रहूं
अतीत, वर्तमान के पीछे
चलता हुआ
अपने गन्तव्य-भविष्य की ओर बढ़ जाता है
अतीत अपने इतिहास को दोहराता है
वापस लौट कर नहीं आता है।

असमर्थता  (04.1.12)
चाहत के रंगों में रंगा हुआ
अन्तस बेचैन रहता है
वह रात का अंधकार
और दोपहर की कड़ी थूप में
अपना आहत मन ढोता हुआ
वर्तमान को जीता है, मौसम-परिवर्तन सहता है
देखने में भरा भरा रहता निरुपाय
किन्तु भीतर से रीता है असमर्थ, असहाय
किस तरह वह विविध संदर्भो में जीता है।
अतीत तो अपना अंतरंग भरता है।
हमारे कंधों पर टंगा हुआ।

अन्तस का मौन  (05.1.12)
वह कौन है? क्या है, कैसे, कैसे, किस प्रकार अन्तस् को मैला कर जाता है
फिर वह कर्म का प्रारब्ध बनकर
जीवभर सताता है।
वह कौन है, किस किस तरह
मैलापन को साफ कर जाता है
कर्म का आश्वाद देकर
हमारी अकर्मठता को नींद से जगाता है।
वह कितने सारे रास्तों से आकर
मेरे भीतर मन के अन्तराल में समाता है
और मुझे आस्था और विश्वास के साबुन से
परिष्कृत कर जाता  है।
वह प्रेम की प्रतीति ही तो है
जो कर्म की श्रद्धा बन
हमें अंधकार से
प्रकाश की ओर ले जाता है।

कहत-कबीर  (06.1.12)
सुनो भाई कबीर मेरी बातें
कैसे सोता दिन और
जागती रातें, कैसे कैसे मन से मन में
होती प्रेम-सगाई
बनते टूटते संबंध और नाते
अन्ततः कहां हम, कब
अपने को पहचान पाते
अंर्तमन की सुन पातें बातें
देख समझ पातें अलख सबेरे
नदी-प्रवाह के ऊपर उड़ती
हंसों की पांते।

विगत-स्वगत (07.1.12)
मैं पीछे लौटना नहीं चाहता
नाही मुड़कर देखने की ही चाह है
बस आगे बढूं, बढ़ता जाऊ हथेलियों में नवोछ्वास के फूल लेकर
और उस विन्दु तक पहुंचूं
जहां स्मृतियों बंशी की तान पर साध रही हो
नए नए स्वर
नए नए गान

मैं पीछे लौटना नहीं चाहता
एक नए युग का निर्माण मेरा लक्ष्य है
जहां पहुंच कर
भक्ति भाव से अर्पित कर सकूं
नव-सृजन के पावों पर
आस्था, विश्वास, समरसता के फूल अम्लान
मैं पीछे लौटना नहीं चाहता
जड़ता और तटबंधता को छोड़ कर
अन चाहे अतीत को
समय-प्रवाह में समर्पित कर
अभिनंदित करना चाहता हूं
अपनी मिट्टी की शान
सर्जित कर
नव-शब्द-स्वर-गान।


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