Saturday 21 January 2012

स्वदेश भारती - संस्मरण

वर्ष 1977 में संजय साढ़े तीन और आनन्द सवा दो के थे। गंगा सागर जाने का विचार सहज स्वतः और अकस्मात दिल-दिमाग को आंदोलित करने लगा। मैं आफिस के लिए तैयार हो रहा था तभी यह निर्णय लिया-क्यों न आज और अभी ही गंगा सागर जाया जाए। उत्तराजी (पत्नी) किचेन में कुछ बना रही थीं। मैने कहा- देवी, चलो गंगासागर चलते हैं और अपने, उत्तराजी के बच्चों के दो चार कपड़े झोले में डाला और बच्चों को साथ लेकर, घर में ताला लगाया राशबिहारी मोड़ से टैक्सी पकड़कर इस्पलानेड बस स्टैंड पहुंचे। काकद्वीप की बस में बैठ गए। शाम 5 बजे काकद्वीप पहुंचे तो देखा लाखों की भीड़, मीलों तक कतारबद्ध लोग। मैंने संजय को गोद में लिया, उत्तराजी ने आनन्द को। मैने उत्तराजी से कहा-मेरे पीछे-पीछे चलती रहो। खो मत जाना। भीड़ के बीच हम गंगा के कगार तक किसी तरह पहुंचे। देखा यहां के हालत विचित्र हैं। लाइनें लगी हुई थी। सोचा यदि लाइन में लगे तो रात भर हम लाइन में लगे ही रहेंगे। कुछ करना होगा। नीचे 15 फूट खाईं थी, उसके बाद गंगा का बहाव। मैने उत्तराजी से कहा मुझे नीचे कूदना है और एक-एक करके बच्चों को तुम फेंक दो मैं उन्हें सहेज लूंगा। दोनों बच्चों को उत्तराजी ने इस तरह फेंका मुझे लगा जैसे टूटे फलों को थाम रहा हूं। अब उत्तराजी कैसे नीचे उतरें। मैने उनका ढांढस बंधाया। साहस करो नीचे आओ। बांध से सरको, डरो नहीं मैं हूं ना। संभाल लूंगा। वे भी नीचे सरकते हुए आ गईं। बड़ी मुश्किल से हम चारों भीड़ भरी नाव में चढ़ गए और गंगा पार कर सागर द्वीप में जब पहूंचे तो देखा उस पार बसों पर बेहद कष्टप्रद तरीके से लोग चढ़ रहे हैं। हम चारों भी बड़ी कठिनाई से बस में चढ़े और गंगा सागर तट आधे घंटे में पहुंच गए। देखा चार-पांच लाख की भीड़ में कहीं भी ठहरने की जगह नहीं थी। भारत सेवाश्रम संघ के कैम्प में जाकर बड़े महंतजी को मैने अपना परिचय दिया। वे पहले तो प्रसन्न हो गए। फिर मौन होकर सोचते रहे। छोटे-छोटे थके भूखे दोनों बच्चों, उत्तराजी का और फिर मेरा सूखा चेहरा देखकर बोले -ऐसा कीजिए आप मेन कैम्प में जहां भी जगह पाएं जाकर विश्राम करें। मैने उन्हें धन्यवाद दिया। बच्चों की उंगली थामें कैम्प में जाकर एक कोने डेरा जमा लिया। उस समय रात के 10 बज गए थे। बच्चे और उत्तराजी बेहद भूखे थे। दिन भर कुछ खाया नहीं था। मैं उन्हें हिदायत देकर बाहर निकला। एक जगह पूरियां बन रही थी वहां से पुरी सब्जी लिए आकर हम सब खाना खाया। बच्चे नींद में थें। एकाध पुरी खाकर सो गए। मैं अपने साथ दो-तीन उन्नी चादर ले गया था। बिचाली (पैरा) नीचा बिछा था। उस पर चादर बिछाकर बच्चों को सुला दिया। फिर हम दोनों क्या करते। जगह थी नहीं। भीड़ बढ़ती जा रही थी। हम दोनों बच्चों की सुरक्षा में उन्हें घेरकर बैठे रहे। 3.30 बजे मकर संक्रांति-सागर स्नान का मुहुर्त था। हमने बच्चों को जगाकर तैयार किया। उन्हें निदाशा ही लेकर सागर स्नान के लिए चल पड़ा। लाखों की भींड़ थी। ऐसे में उत्तराजी ने कहा-देखिए अभी तो 3.30 बजे हैं। इतनी रात में बच्चों को स्नान कराना ठीक नहीं। चलिए वापस कैम्प में चलते हैं। पांच-छह बजे उठकर आ जाएंगे। उनका सुझाव मानकर हम दोबारा कैम्प में लौट आए। उसी जगह बैठ गए जहां पहले डेरा जमाए थे। झोले से सरसों का तेल निकालकर बच्चों की मालिश की। घंटे भर में तैयार होकर गंगा स्नान के लिए पुनः चल दिए। बेशुमार भीड़ थी। हम उस भीड़ की बीच से निकलते हुए सागर-तट पर पहुंच गए। सागर को देखकर मन एक अलौकिक प्रकाश से भर गया। आनन्द विभोर हो उठा। तब तक सूर्य की सतरंगी लालिमा पूर्व क्षीतिज पर रंगोली खेल रही थी। नीचे सागर में धीरे-धीरे लहरें चल रही थीं। असंख्य नर-नारी जय शिव-शंभु, ओम् नमः शिवाय की जय बोलते हुए समुद्र बोलते हुए समुद्र जल में स्नान कर रहे थे। देवों-पीतरों को जलांजली, तर्पण दे रहे थे। उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना कर रहे थे। हम चारों उनके बीच से होते हुए आगे बढ़ गए। कुछ दूर पर एक नाव खड़ी थी। नाव वाले से कहा-भैया तुम्हारे नाव पर हम कपड़े रखना चाहते हैं। थोड़ा नहाने में मदद करो। उसने बंगला में कहा - ठीक आछे, किन्तु तड़ातड़ी कोरते होबे।  (ठीक है लेकिन जल्दी करना होगा)। मैने संजय को सीने से चिपकाकर डूबकी लगाई और लगातार ठंडे पानी में कई बार डूबकी लगाई। संजय ठंड से कांपने लगा। उसी तरह आनन्द को भी नहलाया। दोनों बच्चे कांप रहे थे।  उन्हें कपड़े पहनाकर पूजांजलि देकर पंडित से तीलक चंदन लगवाकर महासागर को पुनः प्रणाम किया और घुटना भर पानी में चलकर पूजा-अर्चना हेतु कपिलमुनी मंदिर के बाहर असंख्य जनसमूह के बीच जाकर फंस गए। भीड़ की लहर ऐसी थी कि वे अपने आस-पास के लोगों को मनुष्य नहीं समझते थे। ठेला-ठेली करती हुई मंदिर की ओर जाने की जानलेवा कोशिश कर रही थी। उनके हुड़दंग में संजय गिर गया। उसे बचाने के लिए उत्तराजी नीचे झूककर उसे उठाना चाही तो भीड़ के बेतहाशा सैलाब में वे भी गिर गईं। भीड़ उन दोनों को रौंदती हुई आगे बढ़ रही थी, मैने देखा कि पत्नी और बच्चे गए। अपने आंखों के सामने असहाय पत्नी और बच्चे को देखकर अचानक ही मेरे अंदर आक्रोश और जोश ने दहाड़ मारी। मैनें अपने दोनों हाथों से भीड़ को जोर लगाकर ठेला। उस समय मेरे शरीर में जैसे हाथी का बल आ गया था। सैकड़ों लोग गिर गए। मैनें पुलिस को बुरा-भला कहते हुए चिल्लाया। उन्हें खरी-खोटी सुनाई कि तुमलोग यही सुरक्षा कर रहे हो। चुपचाप खड़े हुए देख रहे हो तमाशा। अब तक पुलिस आकर भीड़ को नियंत्रित कर रही थी। मैने किसी तरह उत्तरा और संजय को उठाया। पुलिस को उसकी अकर्मण्यता के लिए फिर जोरों से डाटा। पता नहीं क्यों पुलिस जैसे मेरे एक-एक वाक्य से घबड़ा रही थी। पुलिस के सिपाहियों ने भीड़ पर काबू पाने के लिए लाठी चलाने लगे। मैने फिर उनको रोका। नहीं तुमलोग ऐसा मत करो। पुलिस ने हम चारों को कपिल मुनि मंदिर के पास तक ले जाने मेंसहायता की और कपिलमुनी का दर्शन कर उस खुंखार भींड़ से बाहर निकलकर लगा एक मृत्यु संसार से वापस लौट आया।

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