समय हमारे चारों ओर
कण कण में व्याप्त है
समय कहता है- मुझे दे दो जीवन की तितीक्षा
दे दो सारे संघर्ष और प्रेम भी
जिससे हुआ तुम्हारे मन का वरण
जिन सपनों, आशाओं, अधूरी आकांक्षाओं का करते रहे अनुसरण
जिनके लिए किया दिन-प्रतिदिन, सालों साल प्रतीक्षा
तुम्हारा अतीत अब समाप्त है
और वर्तमान भी अतीत बनने वाला है
तुम मेरी बातें सुनो, हताशा के तन्तुओं से
मोह-जाल मत बुनो
अपना अच्छा बुरा मुझे दे दो
अतीत की चिन्ता छोड़ दो
मुक्त हो जाओ काली करतूतों और उदास, हारी, थकी दिन चर्याओं से
जिन्होंने बनाया था तुम्हारे जीवन को विषाक्त
अपनी सभी सफलताओं, असफलताओं को
प्रेम-अप्रेम, चाहत के विविध आयामों को मुझे दे दो
और भविष्य-पथ पर आगे बढ़ो
सफलताओं की ऊंचाईयां चढ़ो
जो जितना कुछ किया
जैसा भी जिया
उस सब की करो समीक्षा,
गहन आत्म चिन्तन
और अपनी सारी पीड़ा, यातना का बोझ मुझे दे दो
हो जाओ आत्म विश्वास से सशक्त, चिन्ता मुक्त
सावधान रहो
अतीत का एक एक क्षण न हो जाए समाप्त
और वर्तमान को जी भर जिओ।
कोलकाता - 28.1.12
समय और प्रेम
समय अपनी गति से चलता है
चलना ही उसकी गति है
वही मौसम परिवर्तन का चक्र साधता है
हमें रात दिन, अंधकार और प्रकाश से बांधता है
अतीत के पर्वत, पठारों, चट्टानों, जंगलों, मरुस्थलों को पार करता
समय-प्रवाह में बहता जाता
कितने सारे किनारे छोड़ता
आगे भविष्य की ओर बढ़ता जाता
इस आपाधापी में प्रेम एक घायल पंक्षी सा
पर फड़फड़ाता हमारे हृदय की पीड़ा और
उमंग-उच्छ्वास के पिंजड़े में बंद प्रेम का अर्थ गुनता है
स्मृतियों के उमड़ते घुमड़ते बादलों की उन्मुक्त खेला में
जीवन की नव वसंतग्राही वेला में
मन का नव्यनीड़ गढ़ता है
नये-नये सपनों के तारों से उसे बुनता है
और फिर प्रवंचना के आघात से क्षुब्ध
पिंजड़ा तोड़कर मनचाहे क्षितिजों में विचरता है
आह! आहत प्रेम में भी
एक नया सपना ढलता है
समय अपनी गति से चलता है।
कोलकाता - 30.01.12
यादों में सिमटा समय का संधिकाल
तुम याद करना
जब पागल हवा बसन्त की सुगन्ध लेकर मदिर मन
मंद मंद बहती, हृदय को आलोड़ित करती
खिड़कियों पर थपकी देकर आहिस्ता-आहिस्ता जगाती और कहती
अमराई में बौर लगने लगे हैं
तुम याद करना
जब प्रथम वर्षा की बूंदें परती धरती पर पड़ें
रसासिक्त हों वृक्षों की जड़ें
वन प्रांतर, किसान की आंखों में नई खुशियां भर जाएं
तुम याद करना
जब दुनिया निद्रा में स्वप्नशील होकर नए-नए सपने देखती हो
किसी नीड़ में पंछी पर फड़फड़ाता हो
निविड़ अंधकार में सब ओर सन्नाटा हो
तुम याद करना
शिशिर में वन प्रांतर मरुस्थल, पर्वत, नदी, सागर-तट पर
आकांक्षा के नव्यतम भाव से जीवन की व्यथा-कथा कहती हो
ठंड और शीत लहरी, झंझा की मार सहती हो
तुम याद करना
अतीत की स्मृतियों के साथ
जब वर्तमान और भविष्य के संधि-पत्र पर समय लिखता हो -
प्रेम ही जीवन-अस्तित्व का उत्स है
तुम याद करना।
कोलकाता - 31.02.12
कण कण में व्याप्त है
समय कहता है- मुझे दे दो जीवन की तितीक्षा
दे दो सारे संघर्ष और प्रेम भी
जिससे हुआ तुम्हारे मन का वरण
जिन सपनों, आशाओं, अधूरी आकांक्षाओं का करते रहे अनुसरण
जिनके लिए किया दिन-प्रतिदिन, सालों साल प्रतीक्षा
तुम्हारा अतीत अब समाप्त है
और वर्तमान भी अतीत बनने वाला है
तुम मेरी बातें सुनो, हताशा के तन्तुओं से
मोह-जाल मत बुनो
अपना अच्छा बुरा मुझे दे दो
अतीत की चिन्ता छोड़ दो
मुक्त हो जाओ काली करतूतों और उदास, हारी, थकी दिन चर्याओं से
जिन्होंने बनाया था तुम्हारे जीवन को विषाक्त
अपनी सभी सफलताओं, असफलताओं को
प्रेम-अप्रेम, चाहत के विविध आयामों को मुझे दे दो
और भविष्य-पथ पर आगे बढ़ो
सफलताओं की ऊंचाईयां चढ़ो
जो जितना कुछ किया
जैसा भी जिया
उस सब की करो समीक्षा,
गहन आत्म चिन्तन
और अपनी सारी पीड़ा, यातना का बोझ मुझे दे दो
हो जाओ आत्म विश्वास से सशक्त, चिन्ता मुक्त
सावधान रहो
अतीत का एक एक क्षण न हो जाए समाप्त
और वर्तमान को जी भर जिओ।
कोलकाता - 28.1.12
समय और प्रेम
समय अपनी गति से चलता है
चलना ही उसकी गति है
वही मौसम परिवर्तन का चक्र साधता है
हमें रात दिन, अंधकार और प्रकाश से बांधता है
अतीत के पर्वत, पठारों, चट्टानों, जंगलों, मरुस्थलों को पार करता
समय-प्रवाह में बहता जाता
कितने सारे किनारे छोड़ता
आगे भविष्य की ओर बढ़ता जाता
इस आपाधापी में प्रेम एक घायल पंक्षी सा
पर फड़फड़ाता हमारे हृदय की पीड़ा और
उमंग-उच्छ्वास के पिंजड़े में बंद प्रेम का अर्थ गुनता है
स्मृतियों के उमड़ते घुमड़ते बादलों की उन्मुक्त खेला में
जीवन की नव वसंतग्राही वेला में
मन का नव्यनीड़ गढ़ता है
नये-नये सपनों के तारों से उसे बुनता है
और फिर प्रवंचना के आघात से क्षुब्ध
पिंजड़ा तोड़कर मनचाहे क्षितिजों में विचरता है
आह! आहत प्रेम में भी
एक नया सपना ढलता है
समय अपनी गति से चलता है।
कोलकाता - 30.01.12
यादों में सिमटा समय का संधिकाल
तुम याद करना
जब पागल हवा बसन्त की सुगन्ध लेकर मदिर मन
मंद मंद बहती, हृदय को आलोड़ित करती
खिड़कियों पर थपकी देकर आहिस्ता-आहिस्ता जगाती और कहती
अमराई में बौर लगने लगे हैं
तुम याद करना
जब प्रथम वर्षा की बूंदें परती धरती पर पड़ें
रसासिक्त हों वृक्षों की जड़ें
वन प्रांतर, किसान की आंखों में नई खुशियां भर जाएं
तुम याद करना
जब दुनिया निद्रा में स्वप्नशील होकर नए-नए सपने देखती हो
किसी नीड़ में पंछी पर फड़फड़ाता हो
निविड़ अंधकार में सब ओर सन्नाटा हो
तुम याद करना
शिशिर में वन प्रांतर मरुस्थल, पर्वत, नदी, सागर-तट पर
आकांक्षा के नव्यतम भाव से जीवन की व्यथा-कथा कहती हो
ठंड और शीत लहरी, झंझा की मार सहती हो
तुम याद करना
अतीत की स्मृतियों के साथ
जब वर्तमान और भविष्य के संधि-पत्र पर समय लिखता हो -
प्रेम ही जीवन-अस्तित्व का उत्स है
तुम याद करना।
कोलकाता - 31.02.12
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