Thursday 14 June 2012

समय का अतिक्रमण

हमें कदम, कदम पर करना पड़ता है
समय के आगे आत्मसमर्पण
जब भी आत्मबोध पर प्रहार किए गए जिजीविषा के संकट आते रहे नए, नए हृदय की माटी में
जब भी उग आए दर्द के अक्षय वट
उससे धनीभूत पीड़ा को मिला संरक्षण..

नव-संस्कृति के विकास और उन्नयन के विविध आयामों से जुड़कर
कई कई बार यात्रा-पथ से मुड़कर
चिन्तन के बनाए ताने बाने
जिए भी तो बहुत सा राज छिपाए
कुछ बाहर, कुछ भीतर
बनाए तरह-तरह के प्रवंचना-सेतु
सच और झूठ के बीच किए बहुत सारे बहाने
बस भागते रहे अस्तित्सव की काली सड़क पर
देखे नहीं वास्तविक जीवन का प्राणधर्मी दर्पण..

कुछ भाग रहे रोटी की तलाश में
कुछ भाग रहे सत्ता के अभिलाष में
कुछ भाग रहे काले-धन की गठरी सिर पर लादे
कुछ भाग रहे कुर्सी के लिए करते किसिम किसिम के वादे
कुछ भाग रहे तोड़ते जन-विश्वास
सभ्यता, संस्कृति, आजादी ले रही हताश भरी उच्छ्वास
वे सभी भाग रहे करते समय का अतिक्रमण...।

No comments:

Post a Comment