Thursday 12 July 2012

कवि की खोज

ओ कवि!
कब तक खोजत रहोगे नए मौसम में
नई नई कलियों के रंग, रूप, रस, गंध
प्रेम-आघात से मर्माहत वेनिस के गुस्साए सांड की तरह
सुख और आनन्द में आकण्ठ डूबे प्रेमियों पर आक्रमण करोगे
निराशा की आत्मघाती प्रवंचना का खाली घट भरोगे
ओकवि!
तुम शायद जानते हो
चन्द्रिमा की रोशनी अधखुली खिड़की से कूद कर
जब बाल विधवा के विस्तर पर पसर जाती है
अथवा लहराते सागर की ऊंची उठती लहरों में
चन्द्रिमा का प्रकाश आंख मिचौनी खेलता है
तब प्रेम अपने विविध उपादानों के साथ
हृदय को मथता है
नई-नई पीड़ा को जन्म देता है
या तो बहुत कुछ देता है
अथवा सब कुछ हर लेता है।
ओ कवि!
तुम यह भी जानते होगे कि
प्रेम जीवन की सबसे सुन्दर चाह है
रति-खेला के आह-शब्द में हृदय का
कितना कुछ मीठा-तीता स्वाद होता है
वही तो है जो हृदय के कलुष को धोता है
वही प्रेम जब अभागे का भाग्य बन जाता
बचे हुए जीवन की यत्रणा को ढोता है।

कलकत्ता
23.4.12


पृथ्वी और प्रकृति का औदार्य
दुःख से अधिक सुख हमें सालता है
दुःख से अधिक सुख में कई तरह की गांठें होती
जैसे प्रेम और उसके असंतुलन में
आत्म-सत्ता अपने गन्तव्य पथ से भटकती
इयत्ता की मर्यादा खोती...

फिर भी जीवन का प्रवाह प्रेम और दुःख के तटों के बीच
अपनी गति-अगति में बहता रहता
धरती का कण कण
मनुष्य के उत्थान और पतन की कथा का
मौन साक्षी बन
अतीत के खंड खंड हुए सपनों का दर्द सहता रहता
पृथ्वी और प्रकृति का औदार्य ही हमें पालता।

कलकत्ता
24.04.12


भटकाव
मैं भटक रहा हूं
पृथ्वी के चारों ओर अपनी आंखों
देखा है प्रथम और द्वितीय महायुद्ध का
भयावह चेहरा। जब किसी एक देश को
पांच देश चारों ओर से घेर ले
और दिन-रात आक्रमण करते रहे
ऐसे समय जान बचा कर भागते हुए भयाक्रांत
आम नागरिकों में मैं भी रहा हूं
और लाखों यहूदियों को संघातिक
गैसचैम्बरों में मृत्युदंड का पर्यवेक्षक रहा
मैंने कांगों, वियतनाम, अफगानिस्तान, ईराक
के नर संहार को देखा है
मां-बाप से विछुड़े रोते विलखते
भूखे असहाय शिशुओं,
कटे रक्त रंजित सैनिकों को देखकर
मर्माहत हुआ हूं।
मैं पृथ्वी पर भटक रहा हूं

समुद्र के आर पार, क्षितिजों के चारों और
शिखरों, घाटियों, वनों जंगलो,
मरुस्थलों , गांवो और नगरों का चक्कर लगाता
देखता रहा हूं मनुष्य की अभागी भाग्य का अंधकार
युद्ध के लिए पत्येक देश तैयारियां करता
नए-नए साज-सम्मान से लैस
सब समय युद्ध के लिए सदल बल तैयार
विकास, शांति और सुरक्षा के ऊपर मंडराते
काले बादल
देखता रहा हूं आकाश में उड़ते पंछियों के झुंड
नए-नए सघन वृक्षों के पातों के बीच
निर्मित करते नीड़
और मनुष्य अपने घर में ही होता पराया संकीर्ण
जातियों और धर्मों में बटा
लबादा पहने पुरानी सम्यता का जीर्णशीर्ण
विचारों का टकराव, सत्ता की आपा-धापी,
संस्कृतियों का विघटन देखता भटक रहा हूं।

कलकत्ता
25.4.2012


पूर्वजीय संदेश
मेरे पिता के पिता कहते थे -
तोड़ो मत
सबको जोड़ो
अपनों को अपनों से
जन-गण के सपनों से जोड़ो,
विस्तृत करो अपनत्व का आकाश
प्रेम, स्नेह बंधन तोड़ो
मन, भले के लिए मोड़ो
यही है जीवन का सार और आनंद-धन-अभिनंदन
आंतरिक अभिमत
अपने अभीष्ट गन्तव्य-पथ को तोड़ो मत
चलते रहे भले ही थके , पांव
छोड़ो मत अपनी मिट्टी, अपना गांव
अपने संस्कार
यही है जीव का सार

कलकत्ता
26.4.2012




विश्वास
जो करे राम करे
बाकी सब श्याम करे
जेसस, अल्लाह। नानक गुरु सब जगह है
कोई खोज नहीं पाता
उन सभी का कहना है एक वाक्य
जैसी करनी, वैसी भरनी
श्रद्धा ही भक्ति है
भक्ति ही पूजा
आस्था से बढ़कर
कोई भी काम न दूजा
इतना भर करे
कि समय से डरें
सारा जीवन खेलते रहे
पाप-पुण्य का खेल
पोषते रहे लोभ
बांधकर नकेल
जीवन भर कर्म-अकर्म का घट भरे
जो करें सब राम करें
बाकी का श्याम करे।

कलकत्ता
27.4.12



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