Thursday 29 November 2012

मैंने शब्दों से यारी की

मैंने शब्दों से यारी की
मैंने संप्रीति न्यारी की
मैं शब्दों के पीछे भागता रहा
अनसोया करवटें बदलता जागता रहा
शब्दों से प्रेम किया
शब्दों के लिए ही जिया...

प्रकृति ने जो भी उपहार दिए
उन्हें ही अपना लिया
उन्हीं से मैंने अपने भीतर
मस्तिष्क की राख में दबी चिंगारी को
प्रज्जवलित किया
शब्द-ज्योति से सभी को प्रकाश दिया...

उस प्रकाश-ऊर्जा-शक्ति को विकीरित करने से
कभी रुका नहीं
किसी भी स्थिति में किसी के सामने झुका नहीं
अपने गन्तव्य-पथ पर चलता रहा
नए-नए सपनों के तईं समय के संयंत्र में ढलता रहा
कितनी ही  बार
अवश, अबोध, अनियंत्रित उत्सृजत होते शब्दों से
भावाभिव्यंजना के विविध आयामों से
समयबद्ध स्थितियों में अपने को बदलता रहा
वही मेरी जीत या हार थी
किन्तु उसी को परचम बनाकर
संघर्षों से लड़ता रहा
आगे बढ़ता रहा
नींद में भी जागता रहा
शब्दों के पीछे अनवरत भागता रहा
शब्दों की यारी प्रकृति से मांगकर अपना लिया...

                                                                        नई दिल्ली
                                                                        16.06.12




सत्याचार

सत्य का कोई राग नहीं
रंग नहीं
नाटकीय ढंग नहीं
सत्य का एकपक्षीय संग नहीं
झूठ की आंखों में डर की बिल्ली बैठी होती है
वैसा सच की आंखों में नहीं
कभी भी, कहीं भी सत्य के स्वभाव में उद्वंड नहीं, घमंड नहीं
सत्य झर-झर झरते शुभ्र झरने की तरह होता
वह अपना स्वरूप कभी नहीं खोता
सत्य का कोई हठ या विराग होता
सत्य में कोई भी भी दाग नहीं होता
सत्य ही समय के साथ चलता
झूठ सदा दूसरों को छलता
सत्य किसान के लिए लहलहाती फसल का सपना है
सत्य में कुछ भी पराया नहीं, न अपना है
सत्य सदा तटस्थ, निर्विकार होता
सत्य जीवन का सार होता
सत्य में कोई अनुराग नहीं
सत्य में किसी का कोई अनुभाग नहीं
सत्य में विराग नहीं
सत्य आत्मा का दर्पण है
सत्य जीवन का समर्पण है



                                                                  नई दिल्ली
                                                                                                   18.06.12







आजा बदरा

सूखी धरती विलख पुकारे
आजा बदरा, पानी दे
पानी दे गुड़ धानी दे
सूख रही हरियाली सारी
वन की सुषमा प्यारी न्यारी
श्वेद कणों को पोंछ पोंछकर
गरमी से व्याकुल नर नारी
विजुरी के कंधों पर चढ़कर
आजा बदरा, पानी दे
पानी दे, गुड़धानी दे
सुखकर लगती सजल बयार
पहली वर्षा-सुखद फुहार
आजा बदरा पानी दे
जन-जन को गुड़धानी दे


                                                              नई दिल्ली
                                                                                              19.06.12











सूर्य-अस्तित्व

सूर्य उगता है दिन प्रति दिन
उषा की सतरंगी आभा का वरदान देता
जन-मन में आनन्द रस भरती
चहक उठते खग-वृन्द,
महक उठती धरती
वहीं सूर्य दिन भर की यात्रा से थककर
गोधूलि बेला में
सान्ध्य-क्षीतिज की खेला में
पश्चिम का मेहावरी कपाट बन्द कर लेता
अंधकार आखेटक सा
अपने शिकार की खोज में चल देता
समय सभी के कर्मों का हिसाब रखता गिन-गिन

सूर्य हमारी आंखों के सामने सबसे बड़ा नक्षत्र है
देवरूपी, हिरण्य गर्भा धरा-आकाश में सर्वत्र है
वह हमें देता है प्रकाश, अंधेरे से मुक्त कराता
सुनिश्चित रेखांकित पथ पर चलता जाता
मनुष्य कभी लौटा नहीं सकता सूर्य ऋण

सूर्य हमें प्रकाश देता
गर्मी वर्षा शिशिर मधुमास देता
जन-जन के कर्म का श्रोत बनता
कण-कण को नई आभा, नवानन्द देता
किन्तु हम अस्त होते सूर्य को
कहां कर पाते हैं नमन
फिर भी सूर्य हमारे अस्तित्व का रक्षक बनता दिन प्रतिदिन



                                                                                             कोलकाता
                                                                                              20.06.12











जीवन का अर्न्तद्वन्द

एक सन्नाटा भरा मौन
मन मस्तिष्क को रौंद जाता है
सत्य-असत्य की अतीत कथा कहता
भवितव्य की एक धुंधली सी आकृति उकेर जाता है
मैं अतीत में लौटना नहीं चाहता
जो बीत गया, बीत गया
जो रीत गया, रीत गया
अब करना है कुछ सार्थक नया
हर तरह से तोड़ना है
अनावश्यक, मनमर्दित अतीत से नाता...

हम मुक्त होकर ही
अभिष्ट-पथ पर चल सकते हैं
जरा सा बंधन औंधे मुंह गिराता है
समय हमेशा कहता है
प्रसन्नचित्त होकर कर्म करने की सार्थकता
हमें देती है नई ऊर्जा, नया प्रकाश
आधा जीवन जीने का दर्द देता संत्रास
जीवन की आपाधापी में कहां कौन मुक्त हो पाता है
मन में उठता अन्तरद्वंद आंसू बहाता है



                                                                                             कोलकाता
                                                                                              21.06.12











प्राण संवेदना के कोरे कागज पर

मैं रोज-ब-रोज कुछ न कुछ लिखता हूं
मैं शब्दों के विविध रूप
मस्तिष्क की चाक पर गढ़ता जाता हूं
रस-रूप-गंध से बने आत्म-सौंदर्य के उच्छ्वास से
गन्तव्य-पथ पर आगे बढ़ता जाता हूं
लिख लिखकर रिक्त होता हूं
उसी से जीने की नव-प्रक्रिया के साथ जुड़ता हूं
उस सीख से होती आत्मीयता की सघन्ता पुष्ट
भले ही होते हों सपनों के चित्रित स्वरूप रुष्ठ
इस तंग दिल दुनियादारी की  विचित्र रूप कथाओं के
अपरूप सौन्दर्य प्रभाव में आकर
बार-बार अपने रास्ते से मुड़ता हूं
जन्मों का यही प्राणान्तरण है
यही सच है कि जैसा है नहीं
वैसा दिखता भी नहीं
और जैसा दिखता है
वैसा है नहीं
अनन्त समय-सागर-तट पर यह अहसास होता
कि कर्म की लहरियों द्वारा छोड़ी गई सिक्ता हूं
जिसे बार-बार मुट्ठी में भरता हूं
प्राण संवेदना के कोरे कागज पर लिखता हूं




                                                                                               कोलकाता
                                                                                              22.06.12












अस्तित्व की सुरक्षा

मैंने ऊंचे-ऊंचे गिरि-शिखरों को, घाटियों को
सघन जंगलों, पठारों, मरुस्थलों के विशाल फैलाव को
झरनों के दुग्धधारी रुपों को, असंख्य रंग-विरंगे फूलों को
नदियों के प्रवाह और अनन्त-सागर की नीलिमा में
उद्वेलित, फेनोच्छसित चंचल लहरों के रूप ज्वार को देखा

मैंने संसृति के विभिन्न भागों में
भिन्न-भिन्न वर्ण, जाति, भाषाओं बोलियों, वेशभूषा के बीच
जीवनयापन करते देखा
उन देशों में भी गया जहां लोग आज भी
मध्ययुगीन सभ्यता में पलते हैं
अपनी तरह से बनाए गए रास्तों पर चलते हैं
और दूसरी ओर ऐसे देश भी हैं
जो आधुनिक सभ्यता के बेमेल संस्कारों में जीते हैं
किन्तु आत्मिक बोध के उन्मुक्त व्यवहार में निरा रीते हैं


ये  देखना जरूरी है कि हमारे आसपास
अड़ोस-पड़ोस, दुनिया के देशों में कहां क्या हो रहा है
यह भी देखना है कि
हमारे घरों में कौन सेंघ मार रहा है
और संस्कृति, सभ्यता, संस्कारों की हत्याकर रहा है
यह जरूरी है कि हम उसी तरह चैतन्य
और सावधान रहें कि कहीं से होने वाले खतरों से
हम लड़ सकें-सुरक्षा के पैमानों के बीच
अपनी विरासत बच्चा सकते हैं।
उसे सुरक्षित रख सकें


                                                                        कोलकाता
                                                                                              23.06.12










अस्तित्व की सुरक्षा

मैंने ऊंचे-ऊंचे गिरि-शिखरों को, घाटियों को
सघन-जंगलों, पठारों, मरुथलों के विशाल फैलाव को
झरनों के दुग्धदारी रूपों को, असंख्य रंग-विरंगे फूलों,
नदियों के प्रवाह और अनन्त-सागर की नीलिमा में
उद्वेलित, फेनोच्छसित चंचल लहरों के रूप ज्वार को देखा

मैंने संसृति के विभिन्न भागों में
भिन्न-भिन्न वर्ण, जाति, भाषाओं बोलियों, वेशभूषा के बीच
जीवनयापन करते देखा
उन देशों में भी गया जहां लोग आज भी
मध्ययुगीन सभ्यता में पलते हैं
अपनी तरह से बनाएगा रास्तों पर चलते हैं
और दूसरी ओर ऐसे देश भी हैं
जो आधुनिक सभ्यता के बेमेल संस्कारों में जीते हैं
आत्मिक बोध के उन्मुक्त व्यवहार में निरा रीते हैं

हमें देखना है कि हमारे आसपास
अड़ोस-पड़ोस, दुनिया के देशों में कहां क्या हो रहा है
यह भी देखना है कि
हमारे घरों में कौन सेंघ भार रहा है
और संस्कृति, सभ्यता, संस्कारों की हत्याकर रहा है
यह जरूरी है कि हम उसी तरह चैतन्य
और सावधान रहें कि कहीं से होने वाले खतरों से
हम लड़ सकें-सुरक्षा के पैमानों के बीच
अपनी विरासत बच्चा सकते हैं।
उसे सुरक्षित रख सकें।


                                                                                              कोलकाता
                                                                                              23.06.12









जीने का यत्न


इतना कुछ किया
जैसे भी जिया
किश्तों में जिया
फूल और कांटों के बीच
विष और अमृत पीया
आंखें भींच
कुछ अच्छे अवसर गंवाएं
समय से जो कुछ भी पाएं
जीवन को राग-रंग से सजाएं
अंधेरे में जलाएं
मन के छोटे-बड़े दिए
असाध्य संत्रास के बीच
यह जीवन विविध कोणों पर जिए
मैंने सदा दूसरों की परवाह किये
निजता त्याग कर जिया
सन्नाटा
असंगतियों के परकाट कर
अपने को कई भागों में बांटा
किसी से कुछ भी नहीं लिया
प्रकृति से प्रेम किया
उसी से जीने की सीख लिया
अपने पावों पर खड़ा होने में
जितना भी समय दिया
देखा कि जीवन के क्षण
सहज-असहज बिता दिया
जैसा भी किया
वैसा ही तो जिया


                                                                                              कोलकाता
                                                                                              25.06.12










थोड़ा-थोड़ा बांटो प्यार


थोड़ा-थोड़ा बांटो प्यार
प्यार पाना है दुश्वार
टपटप करती बूंदे वर्षा की
धरती पर पग पड़ते ही इतराती
हरियाली संग रास रचाती
हंसती, गाती, घुमड़-घुमड़कर नाचती
भरती हृदयों में अभिसार
थोड़ा थोड़ बांटती प्यार

पशु पक्षी, जन-जन तनमन को
सुख कर लगता प्यार
प्यार बिना जग सूना लगता
चतुर्दिक घिरता है अंधकार
संक्रामक आवाजें आ रहीं बार-बार
थोड़ा थोड़ा बांटों प्यार

प्यार बिना लगता जग सूना
दुख, पीड़ा, हो जाते दूना
मौसम-परिवर्तन से धरती
सबको यह संदेश बांटती
जग में जो आनन्द भरा है
वहीं है हृदय को संचित प्यार
थोड़ा थोड़ा बांटो प्यार...






                                                                                               कोलकाता
                                                                                              26.06.12








कविता-घर


मैं दिन प्रतिदिन कविता-घर बनाता हूं
कभी गांव की झोपड़ी से मिलती जुलती
मन की चौड़ी-लम्बी चौपाल,
विस्तृत द्वारा, आंगन, बखार-कक्षा, पूजा भवन
संवेदना के दरवाजे, खिड़कियां, भावाभिव्यक्ति के
रंग-विरंगे कार्निश, बहुतेरे भित्ति-चित्र
हृदय के फूलों, लतरों, कई तरह के पौधों,
झाड़ियों, हरियाली से सजाता हूं
मैं कविता घर बनाता है
यह घर कभी पूरा नहीं हो पाता
कितने बरस बीते
कितने मौसम रीते
जिन्हें इस घर में रहना था
वे अजानी दिशाओं में चले गए
बस बच गया एकाकी मन
जो पूरे घर में रहता है
अकेलेपन की यंत्रणा सहता है
मैं अपने तईं, स्वयं एक नाता हूं
दिन प्रति दिन घर बनाता हूं
अपने को भीतर से जगाता हूं
यह जो आतंक, भय, निराशा फैली है चारो ओर
इन सबसे सुरक्षित रहे घर
इसलिए उसे मजबूत बनाता हूं।


                                                                                              कोलकाता
                                                                                              27.06.12









सोच की नांव


सोच की नांव
संवेदना की पतवार
अनन्त शब्द-सागर
दुःख दैव्य मझधार
किसी भी सूरत में तटिनी को
ले जाऊंगा उस पा....

चिन्तन की उद्वेलित लहरें
उठती गिरती शोर मचाती
तट को छूती, वापस जाती
फिर आ जातीं बारम्बार.....

शब्दों का है बूढ़ा नाविक
नांव पुरानी, भग्न पतवार
मन-सागर कितना अगम्य है
कैसे हो भवसागर-पार.....


                                                                                               कोलकाता
                                                                                              28..06.12











अभी और जीना है


अभी और कुछ दिन तक
धरती की मन-मादक मृदुल गंध से
सम्मोहित होना है
अभी और कुछ दिन तक
अपने कंधों पर सुख-दुख का भार
अदम्य-उत्साह से ढोना है
अभी तो केवल मौसम-परिवर्तन देखे
नदी का प्रवाह, सागर तट पर गिरती
बाहों में आगोष्ठित करती लहरों का
उद्दाम, उच्छ्वल, उद्वंड रूप देखा है
संत्रासयुक्त स्वत्वहीन, संज्ञाच्युत, स्वप्न-विहीन
विगलित संबंधों को जिया है
असमय की अगम्य, अगोचर, अन्तरवर्धी
असामान्य पीड़ा को हृदय की कोठरी में बन्द किया है
जब हारिल की तरह
मुक्त-पंख उड़ जाऊंगा किसी अजाने क्षितिज की ओर
जीवन-नाटक का पर्दा गिर जाएगा
थम जाएगा आपाधापी का शोर
उस समय की प्रतीक्षा कर रहा हूं
अन्तस् के खाली घट को
आत्म-इतिहास की होनी-अनहोनी घटनाओं से
सुख-दुख के पैमानों से भर रहा हूं
अभी शायद इसी तरह
हां, इसी तरह सघन कर्मी से बंधा जीवन जीना है
न चाहते हुए भी
अभी अन्तश्चेतना के विपर्यय का
आत्महन्ता विष पीना है
अभी और जीना है।



                                                                                                कोलकाता
                                                                                              29..06.12








समय भाग रहा है


जल्दी-जल्दी चलो
समय द्रुत-गति से भाग रहा है
सबेरा सूर्य-आभा से नहा रहा है
पंछी कर रहे हैं स्तवन
जागृत है स्मृतियों का आकाश
कैसे बीत गया शीघ्रता से मधुमास
जल्दी जल्दी चलो
कहीं आगे का पथ विपथ-विपतिजनक न बने
बहु तेरे सोन- किरण-जाल में
आशा-स्वप्नाकांक्षा की मछलियां फंसा रहे
कोई व्यर्थ में आनन्द-रस बहा रहाहै
समय निःपृह भाव से भाग रहा है
सौभाग्य का देवता
हमारी अन्तस की पीड़ा को शांत करने के लिए
देर रात में भी जाग रहा है
जल्दी जल्दी चलो
समय अपने समय से भाग रहा है।


                                                                                               कोलकाता
                                                                                              30..06.12

























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