सुख भला अच्छा लगता है जब सोया दुख जगता है
भले ही क्षणिक हो यह अंतरण
जबकि अंधकार विलगता है और
प्रकाश हमारे रास्ते को प्रशस्त करता है
हमारे आसपास, देश दुनिया में, जन-जन में
अंधकार के विरुद्ध मन में
छाया है आक्रोश
कटी पिटी आशाओं के परिणाम स्वरूप
हृदय में अग्निचक्र सुलगता है
सोया हुआ स्वप्न
आत्म उद्वेग, समष्टि के दुखों से आहत
नींद में ही बार-बार चौंक उठता है।
1 अक्टूबर, 2012
रास्ता मुड़ता रहा
हम कहानी बनाते बनाते
स्वयं कहानी बन गए
देखा आत्म-प्रपंच, मिथ्या शब्दाडम्बरी
प्रवंचना-भाव-वितान नए नए
जब हम अर्थ-अनर्थ के कीचड़ में फंसे
तब ईर्ष्यालु अहंकारी शब्दचोर हंसे
चलता रहा यह कथा-सूत्र
कुछ कटता, कुछ जुड़ता रहा
अंधकार भी जागा, सबेरे को जगाया
नदी का कितना जल बहता रहा
रास्ता बार-बार मुड़ता रहा
2 अक्टूबर, 2012
विपरीत मतों से ही आते दुर्दिन
सुनाता कई मुखो से-भते भते मतिर्यिन्ना
ताक ताक धिन ताता धिन्न
धिनक-धिनक धिन, देश-काल की घटना गिन
ताताधिन ताता धिन ताता धिन
विपरीत मतों से ही आते दुर्दिन
ताक धिना धिन, ताक धिना धिन
लाल जवाहर हो या जिन्ना
3 अक्टूबर, 2012
सागर का आर्तनाद
रात भर सुनता रहा सागर का आर्तनाद-उद्वेलन
प्रचंड गर्जन
रात भर अंधकार को आत्मसात करता,
गरजता, भरजता, तट पर इतिहास की
अव्यक्त-कथा लिखता-मिटाता
लहरों से जोड़ता कालजयी नाता
सिखाता मानव संस्कृति को सर्जन-विसर्जन
रात भर सुनता रहा सागर-गर्जन...
अपने भीतर की अणुविस्फोटों से उत्सृज ज्वाला-व्यथा
कहता है एकाकी व्याकुल भीषण आग को सहता
संसृति का यह असहनीय दृश्य देखकर
ब्रह्माण्ड के असंतुलित सर्जन-न्याय के प्रति
मन में आक्रोश होता है
सागर के ऊपर चमकती चन्द्रिका अपने कामना
जाल में सागर-हृदय बांधती
करती उसी पीड़ा का संवर्धन
रात भर चलता रहता सौन्दर्य नाट्य मंचन...।
4 अक्टूबर, 2012
जो पाया वही खोया
भींड़ भरे रास्तों से निकलकर
नई राह पर आया हूं
मन-मस्तिष्क की झोली में नए शब्द भाव लाया हूं
और उन्हें ही तो दता आया नव स्वर
वही सब तो देने के लिए यह जीवन जिया
अभीष्ट पाने के लिए
दुखों का ताजमहल बनाया
वही सब तो दिया जन-जन को
जो समय और समाज से पाया हूं।
5 अक्टूबर, 2012
प्रणाम्य सागर-तट
छोड़ आया सागर-तट
और जगन्नाथ धाम
लौट रहा खाली मन अपने ग्राम
खोजने नया पथ, नई दृष्टि अभिराम
करता हूं उस अनन्त जलाधिपति को प्रणाम।
6 अक्टूबर, 2012
सफलता -असफलता
मैंने यह सीखा कि
कर्मनिष्ठ जीना जरूरी है
अभाव, दुश्चिन्ता, असफलता, विखराव, असंतोष
अकर्मण्यता एक मजबूरी है
अच्छे से जीने के लिए यह सोच भी कि
समाज से जो कुछ लिया
उसमें से कितना वापस किया
विसंगतियां छाई रही मस्तिष्क-मन पर
बहुत सारा जीवन निजता, मिथ्या भ्रम में बिता दिया
संभवतः इसीलिए समझ नहीं सका
ठीक ठीक जीने की प्रक्रिया
जो सफलता और असफलता के बीच की दूरी है।
7 अक्टूबर, 2012
भले ही क्षणिक हो यह अंतरण
जबकि अंधकार विलगता है और
प्रकाश हमारे रास्ते को प्रशस्त करता है
हमारे आसपास, देश दुनिया में, जन-जन में
अंधकार के विरुद्ध मन में
छाया है आक्रोश
कटी पिटी आशाओं के परिणाम स्वरूप
हृदय में अग्निचक्र सुलगता है
सोया हुआ स्वप्न
आत्म उद्वेग, समष्टि के दुखों से आहत
नींद में ही बार-बार चौंक उठता है।
1 अक्टूबर, 2012
रास्ता मुड़ता रहा
हम कहानी बनाते बनाते
स्वयं कहानी बन गए
देखा आत्म-प्रपंच, मिथ्या शब्दाडम्बरी
प्रवंचना-भाव-वितान नए नए
जब हम अर्थ-अनर्थ के कीचड़ में फंसे
तब ईर्ष्यालु अहंकारी शब्दचोर हंसे
चलता रहा यह कथा-सूत्र
कुछ कटता, कुछ जुड़ता रहा
अंधकार भी जागा, सबेरे को जगाया
नदी का कितना जल बहता रहा
रास्ता बार-बार मुड़ता रहा
2 अक्टूबर, 2012
विपरीत मतों से ही आते दुर्दिन
सुनाता कई मुखो से-भते भते मतिर्यिन्ना
ताक ताक धिन ताता धिन्न
धिनक-धिनक धिन, देश-काल की घटना गिन
ताताधिन ताता धिन ताता धिन
विपरीत मतों से ही आते दुर्दिन
ताक धिना धिन, ताक धिना धिन
लाल जवाहर हो या जिन्ना
3 अक्टूबर, 2012
सागर का आर्तनाद
रात भर सुनता रहा सागर का आर्तनाद-उद्वेलन
प्रचंड गर्जन
रात भर अंधकार को आत्मसात करता,
गरजता, भरजता, तट पर इतिहास की
अव्यक्त-कथा लिखता-मिटाता
लहरों से जोड़ता कालजयी नाता
सिखाता मानव संस्कृति को सर्जन-विसर्जन
रात भर सुनता रहा सागर-गर्जन...
अपने भीतर की अणुविस्फोटों से उत्सृज ज्वाला-व्यथा
कहता है एकाकी व्याकुल भीषण आग को सहता
संसृति का यह असहनीय दृश्य देखकर
ब्रह्माण्ड के असंतुलित सर्जन-न्याय के प्रति
मन में आक्रोश होता है
सागर के ऊपर चमकती चन्द्रिका अपने कामना
जाल में सागर-हृदय बांधती
करती उसी पीड़ा का संवर्धन
रात भर चलता रहता सौन्दर्य नाट्य मंचन...।
4 अक्टूबर, 2012
जो पाया वही खोया
भींड़ भरे रास्तों से निकलकर
नई राह पर आया हूं
मन-मस्तिष्क की झोली में नए शब्द भाव लाया हूं
और उन्हें ही तो दता आया नव स्वर
वही सब तो देने के लिए यह जीवन जिया
अभीष्ट पाने के लिए
दुखों का ताजमहल बनाया
वही सब तो दिया जन-जन को
जो समय और समाज से पाया हूं।
5 अक्टूबर, 2012
प्रणाम्य सागर-तट
छोड़ आया सागर-तट
और जगन्नाथ धाम
लौट रहा खाली मन अपने ग्राम
खोजने नया पथ, नई दृष्टि अभिराम
करता हूं उस अनन्त जलाधिपति को प्रणाम।
6 अक्टूबर, 2012
सफलता -असफलता
मैंने यह सीखा कि
कर्मनिष्ठ जीना जरूरी है
अभाव, दुश्चिन्ता, असफलता, विखराव, असंतोष
अकर्मण्यता एक मजबूरी है
अच्छे से जीने के लिए यह सोच भी कि
समाज से जो कुछ लिया
उसमें से कितना वापस किया
विसंगतियां छाई रही मस्तिष्क-मन पर
बहुत सारा जीवन निजता, मिथ्या भ्रम में बिता दिया
संभवतः इसीलिए समझ नहीं सका
ठीक ठीक जीने की प्रक्रिया
जो सफलता और असफलता के बीच की दूरी है।
7 अक्टूबर, 2012
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