Monday 24 December 2012

नवस्वर-सर्जन

सुबह-शाम, दिन-रात
परिवर्तित होते रहे मौसम
और चलते रहे पथ पर थके पांव
जब स्मृतियों की आंधी आई जान लेवा तूफान के साथ
मैंने अनुभव किया- कितना ऊबभरा होता अकेले का सफर
और जब अन्तस् - आकाश में
पीड़ा की बदली छाती है
सुख और दुख के बीच होता जय-विजय का नाटक
मैं तटस्थ हो जाता,
नहीं टूटती जड़ता दुर्निवार
चाहे जो जीते, चाहे जिसकी हो हार
सर्जित करने का यत्न करता रहा
 नए-नए स्वर बार बार।

                                                           9 अक्टूबर, 2012







आत्म बोध

तेरे प्रति जो आत्म बोध जागता है
और जो अंधकार घिरा था, भागता है
क्षण भर में ही निरभ्र, ज्योतित, एकात्म प्रेम
आन्दो पहार लिए आता है
सारा द्वेष-विद्वेष ओझल हो जाता है
हमारे तुम्हारे बीच
नया रास्ता बनता है

यह स्थितियों का खेल है
उसी से हममें जो मेल है
अंतराल का सूनापन
नव-उमंग में बदल जाता है।

                                            10 अक्टूबर, 2012







नचिकेता के प्रश्न

यम से निचकेता ने पूछे बहु सारे प्रश्न
किन्तु सारे प्रश्न अनुत्तरित रह गए
क्योंकि युग-बोध नए युग के साथ बदल जाता है
कोई सत्य एक रूप नहीं होता
समय के साथ बदलता है अर्थ
जो उसके सही स्वरूप को नहीं पहचानते
और सत्य से बंधे होते हैं, उसके सारे आयाम हो जाते व्यर्थ

नचिकेता के प्रश्नों का यम सही उत्तर नहीं देते
ना ही उसकी सत्य-ज्ञान जिज्ञासा को शांत कर पाते हैं
बस परमात्मा प्राप्ति के साधन रूप श्रेय की प्रशंसा कर
साधारण मनुष्यों की विशेषता और उसके वैराग्य-भाव को
प्रशंसा करते हैं। नचिकेता सोचता है - संसार का
संहार करने वाले मृत्यु देवता यम अपने
मृत्यु दान परक धर्म से तनिक भी इधऱ-उधर जाने वाले नहीं
क्योंकि उन्हें नहीं छू सकता किसी भी तरह का स्वार्थ
और जीवन-मृत्यु स्वार्थ से परे होते
जितना अर्जित करते वह सब महाकाल प्रवाह में खोते।

                                                                                   11 अक्टूबर, 2012








देश राग

मैं अपनी आंखों से देश को देखता हूं
उसके इतिहास को गुनता हूं
दिन-प्रतिदिन नए-नए स्वप्न बुनता हूं

मैं अपनी आवश्यकताओं, मांगों और जरूरतों को
देश की चौखट पर रखता हूं
उन पर संसद में कभी कभार बहसे भी होती है
बिना किसी निष्कर्ष के
यूं तो बनाए जाते हैं नव निर्माण के नए-नए खाके
किन्तु कैसे बताएं खोखली दलीलों और
बेबुनियाद बहसें जिनके बीच
अस्तित्व विहीनता आदमी के उत्कर्ष को
नकारा बना देता है

मैं अंधकार भरे रास्ते पर
चल रहा डगमग पांव
बहुत दूर छोड़ आया शहर, गांव
यूं तो प्रतिदिन अपने लिए
नए सपनों से भरा आकाश चुनता हूं।

                                                          12 अक्टूबर, 2012






शब्द खेल

शब्द-खेला-घर में
भावों की अजब गजब गुड़िया, गुड्डे बनाता हूं
और उन्हें अक्षर-शाही बाजार में बेचने ले जाता हूं
कुछ गुड़िया गुड्डे अच्छे भाव में बिकने पर
जश्न मनाता हूं
गुनगुनाता हूं नया गीत
जिसे गढ़ता नए ताल-छन्द स्वर में...

शब्द खेला घर मेरे भीतर बना है
बना क्याहै बनाया है अदृश्य शक्ति ने
उसे उजागर किया है
मेरी शब्द-प्रेम-कर्म आस्था-भक्ति ने
जन-जन के लिए सप्तपर्णी प्यार का वितान तना है
सुखानुभूति होती है मन-अलिन्द-मर्मर में..

शब्द खेला घर कहीं टूटा फूटा है
कहीं अभिव्यंजना से बनी दीवारों की
भग्न-परतें दांत चिढ़ाती हैं
फिर भी खेला घर जीर्ण शीर्ण होने पर भी अनूठा है
और उसी पर रहता आया जीवन पर्यंत निर्भर...।

                                                                                      13 अक्टूबर, 2012







नये नीड़ के लिए

कितने सारे प्रिय-अप्रिय,
आत्मीय अनात्मीय संबंध छूट गए
कितने सारे मौसम, मधुमास,
झंझावात, तूफान
और बर्फीली तेज हवाओं में बेमौसम हो गए
आत्मदंशित-संबंध रिश्तों के आत्म-सेतु टूट गए
अब नए परिवेश में
नए के लिए नवाकांक्षा का नीड़ बनाना है
भले ही कष्टकारक स्थितियां
पग-पग पर बाधाएं डालें
प्रत्येक खडयंत्र से नए नीड़ को बचाना है
क्योंकि हो न हो पुनः लौटकर नये नीड़ में आना है।

                                                                                15 अक्टूबर, 2012





अहंभाव

मैं अपना अहंभाव सबसे ऊपर रखता आया
शायद इसीलिए
अपनी हंसी-खुशी,
अपना आनन्दोल्लास
उन सब के साथ बांटता रहा
और यह भी उजागर करता रहा
कि इयत्ता की प्रभुसत्ता सर्वोपरि होती
इसी मंशा को सफल करने के लिए
संबंधों के आर-पार
आकांक्षा जाल फैलाया
और अपनी अहमियत सबसे ऊपर रखता आया

दर्द और संघर्ष सहना पुरुषार्थ है
खंडित अस्मिता को जीना विनार्थ है
अंधकर में ही रोशनी का जन्म होता
असमर्थतावश हार के कारण ही हमारा सर्वस्व खोता।

                                                                                    16 अक्टूबर, 2012







पथचारी

मैं अपने पथ पर चलते हुए रुकता जा रहा
संभवतः चुकता जा रहा हूं
रोज सबेरे उठकर सूर्यप्रणाम करते हुए
जब मैं धरती-नमन के लिए झुकता हूं
तब मुझे लगता है बाहर से हरा भरा लगता
किन्तु भीतर से सूखता जा रहा हूं
मौन आह की आहट से चौंक जाता हूं
कि समय किस तरह पंछी की तरह डैने फैलाए
उड़ता हुआ दिगन्त के करीब पहुंच गया
और मैं कभी यह पथ, कभी वह पथ
विविध कोणों पर मुड़ता रहा
एक क्षितिज से टूट कर दूसरे से जुड़ता रहा।

                                                       17 अक्टूबर, 2012













शब्द-भाव के बीच

मैं शब्दों के छन्दों में जीता रहा
फिर भी अगीता ही रहा
नहीं जानता समय का रथ किन -किन मार्गों से
गुजरेगा, नए पथ पर चलेगा
और उसी क्रम में
मेरे भीतर नए-नए सपनों का आकार पलेगा
हर हाल में शब्दों की फटी कमीज को सीता रहा

कहीं मिलती रही नई-नई राह
कहीं मिलती रही बेगानी आह
असंख्य विघ्न बाधाओं से बचाकर
संजोए रखा मन की चाह

हर हाल में चलता रहा
हालांकि बन्धो-उपबन्धों में पलता रहा
अपनी अभिव्यक्ति की थाती बचाता हुआ
नए-नए शब्द बोध के लिए मचलता रहा
अनाशक्त होते हुए भी
उस सभी स्थितियों से संपृक्त हुआ
मौन रहते हुए भी अभिव्यक्त हुआ
शब्दों के भाव-अभाव के बीच जीता रहा।

                                                          18 अक्टूबर, 2012






नवसंवत्सर

तेज कदमों से वीहड़ रास्तों पर चलकर
आ गया हूं ऊंचाई पर
अब मुझे धीमी गति से उतरना है शिखर दर शिखर
परन्तु कैसे करूं गति धीमी

तेज चलने की आदत से मजबूर
कैसे करूं धीमी अपनी गति

कर्मण्डेव अधिकरास्ते का मंत्र लेकर
इतनी दूर की यात्राएं पूरी की
एक आश्वस्ति के साथ चला था
पथ-श्लथ, डगमग पग
किन्तु स्वयं को
सम्हालते, सम्हलते पूरी यात्रा
जो कई चरणों में अधूरी थी

और अब कैसे करूं फिर से यात्रा-संयोजन
उसी गति के साथ
क्योंकि  मौसम का रुख बदल गया है
नवसंवत्सर में जीवन का रंग नया है।


                                                           19 अक्टूबर, 2012








सत्य का रूप

सत्य हमारे भीतर
कई आकार लिए छिपा होता है
वह बाहर तभी आता है
जब पैदा होते हैं असत्य के अनगिन जीवधर

सत्य हमारे भीतर
तरह-तरह से असत्य की समीक्षा करता है
किन्तु असत्य की सतह तक पहुंचने में
अपने को असमर्थ मानता है
प्रत्येक प्रभात की अरुणोदय बेला में
नई प्रतिज्ञाओं के साथ असत् का अंधकार हटाता हूं
अपने को दोहराता हूं
सत्य का आलो-अंधकार से अटूट नाता है।

सत्य हमारे भीतर प्रतीक्षा
नए-नए आकार ग्रहण करता
अपने को उद्भाषित करता
गाता आत्म-अनात्म के विविध गीत-स्वर
नए जीवन के स्वागत में नवोच्छ्वास भर

                                                    20  अक्टूबर, 2012









माँ देवी के आगमन पर

प्रतिवर्ष, प्रति घर आंगन, चौपाल, पार्क में
छा जाता अद्वितीय आनन्द
कुछ दिनों के लिए
सभी दुख, संताप, अभाव
प्राण-सप्तम के साथ हाथ मिलाकर चलते स्वच्छन्द
एक हो जाते कुत्सित, मलिन क्षण
गाते वैभव भरा गान एक स्वर
मां देवी के आगमन पर

सारी जगती खिल उठती है
खिल खिलाती शरत की मधुमाती हवा
सफेद बादलों के हाथ में हाथ डाले
सारे बोझिल क्षण हो जाते उल्लासित सुख के हवाले
नव-वातासी-मृदुल-ठंड-सिहरन से मुग्ध-मुद्रित
सिवाल और शहर के पथ सारे
सर्मित होते शिशिवर के क्षण न्यारे
अम्बर और धरती गाते नवोल्लास गीत एक स्वर
मां देवी के आगमन पर

प्रकृति लेती अंगडाई
धनधान्य भरा धरती पर नवान्न-छठा छाई
वन पाखी अपने नीड़ों को सजाते
नव-विहान गान गाते
हरित भरित झूमती अमराई
सब कुछ परिवर्तित होता
और बहुत कुछ बदला नहीं जाता
संसृत का विधि-विधान अनस्वर
मां देवी के आगमन पर।


                                            22  अक्टूबर, 2012






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