अतीत लिखथा है भविष्य की विधि लेखा
जब दिशाएं अंधकार में डूबी हो
और बहुत दूर दिगन्त के पार
रोशनी हाथों में किरणों की मेहदी लगाती हो
तारे अदृश्य-पथ-गामी के करपाती -उत्सव में शरीक होने
अन्तरिक्ष की राह चले जाते हों
अतीत मिटाता है वर्तमान की काल-रेखा..
मनुष्य अपने कर्मों पर जीता है
कर्मों का संस्कार छोड़ जाता है
जिसे भविष्य अपने ढंग से रुपायित करता
वैसा नहीं होता जैसा हमने सोचा
और बनाया आकांक्षा का भाग्य-सेतु
युगों से हटा नहीं सके आत्मघाती- राहु केतु
जो भाग्य को प्रताड़ित करते
और हमारे अस्तित्व के विकास को कर देते अनदेखा..
एक अदृश्य शक्ति जो समय के साथ मिलकर
हमारे प्रारब्ध को तरह-तरह से बनाती विगाड़ती
और हम वर्तमान की चौखट पर खड़े होकर
देखते निर्माण और विध्वंस
हम अभावों की शीत लहरी में निरुपाय
भीतर जलती आक्रोश ज्वाला में
अपने हाथ सेंकते रहे
मांगते रहे अपना दाय
ऐसे में वर्तमान को शीघ्रता से जाते देखा
लिखी जाती रही अनवरत भाग्य लेखा।
11 दिसम्बर, 2012
समय का दिया
समय ने जैसा दिया दिया
उसके प्रकाश में यह जीवन जिया
अपना सर्वस्व समष्टि को दिया
अस्तित्व के लिए ही तो कर्म-अकर्म किया।
12 दिसम्बर, 2012
स्थितियों से साक्षात्कार
मुझे घूर-घूर कर मत देखो
मरे घर, मेरी सुविधाओं की ओर नजर मत फेंको
मैं कैसे जीवन-यापन करता हूं
उसे भी मत देखो
सिर्फ देखो कि मैंने क्या किया
और यह भी कि
दुखद विसंगतियों, प्रवंचनाओं और
विपरीत स्थितियों में कैसे जिया...
मुझे घूर-घूर कर मत देखो
कम से कम इतना भर करो
कि भीतर जो प्रपंचवादी बैठा है
उसे निकाल कर दूर भगाओ,
स्थितियों को सही सही देखो
और यह भी कि तुमने क्या किया...।
13 दिसम्बर, 2012
मेरी-तेरी गति
तू डाल डाल
मैं पात पात
तू अंधकार
मैं नव प्रभात
तू धरा प्राण-उर्वर माटी,
मैं अंकुर हूं
युग की थाती
तू बने दिया, मैं बाती
इस अंधेरे समय में
दोनों ही चलें साथ-साथ।
14 दिसम्बर, 2012
तन्मयता के क्षणों के बीच
प्राण गर्भा आत्मीय तन्मयता के क्षणों को
कौन कितने दिन याद कर पाता है भला
स्मृतियों का सिलसिला
समय के पतझर में झर जाता है
जिस सपने को चाहत का औदार्य समझ
सीने से लगा रखा था
वह आश्विन के यूथ भर्ष्ट बादल की तरह
हृदय-आकाश से ओझल हो जाता है
सब कुछ सरे आम होता है
कहीं कोई छिपाव, दुराव, भटकाव नहीं
सब कुछ बसन्त में खिले
फूल की तरह होता है
जिसकी पंखुड़ियों का रस पीकर
मदमस्त हो जाता है
अलिन्द
कितने सारे प्रेम-विभोर मरते हैं
दिए की जलती वर्तिका में आत्मघात करते हैं
पूरे आत्मसंवेदी संस्कार के साथ मरत हैं
वे नहीं याद कर पाते
अपने जल मरने की संगति
आत्मसात कर लेते जीवन की इति
किन्तु हम जीने और मरने का हिसाब नहीं रख पाते
प्रेम-सुख भोगते, उसके खट्टे मीठे फलों को चखते हैं
भले ही प्रवंचना का खेल खेलते हैं
जय-विजय का सुख-दुख झेलते हैं
और फिर सब कुछ भूल जाते हैं
भला कौन मुट्ठी में भर
बालू के कणों को सहेज पाया है
पूरे मनसे आत्मसात कर सका है
प्राणगर्भा प्रेमीले तन्मयता के क्षणों को।
15 दिसम्बर, 2012
जीवन का धूप-छांव
हमें अपने पथ पर
आगे बढ़ने का साहस देता
फिर जब थके पांव चलने में असमर्थ होते
अतीत को याद करते
अवसाद में आहें भरते
यही जीवन का क्रम है
और इतिहास घटनाओं, उपघटनाओं का व्यक्तिक्रम है
जिसके बीच हम
अपने अस्तित्व को संजोते हैं
कर्म की माटी में शब्द-ज्ञान बीज बोते हैं
अतीत को सीने से लगाए जीते हैं
स्मृतियों के टूटे दर्पण में अपना चेहरा देखते
आत्मसात करते तन्मयता के क्षणों को।
17 दिसम्बर, 2012
नदी प्रवाह
नदी यूं ही नहीं बनती
सदियों तक हवा पत्थरों को तराशथी है
ऊंचे गिरि शिखर, गलेसियर
बर्फाच्छादित चट्टाने
अपने हृदय का प्यार पथरीली ऊंचाई से गिरते
सफेद झरनों के जल में विसर्जित करते
एक प्रवाह को जन्म देते
उसी से बनती है नदी...
जैसे-जैसे ऊंचाई से गिरकर
जल धाराएं समतल में आती हैं
अपने साथ
ऊंचे-शिखरों, ग्लेशियर,
बर्फाच्छादित चट्टानों का प्यार
धरती जनों के लिए लाती हैं
नदी पर्वत की थाती है
जो सदा रहती अपने प्रवाह से बंधी...
नदी खेतों, बनो, जंगलों को
देती अपना जल
जिससे उपजती फसल
हरियाली फूलती फलती
पैदा करती फूल, फल
सदियों से जीवन पोषित करती नदी
अपने कर्म से सधी...।
18 दिसम्बर, 2012
पंडितों की भविष्यवाणी
शीत लहर चली
मौसम हुआ ठंड का बाहुबली
ठंड से कांपते लोग, मरते लोग
मच गई है गांव से शहर तक
पृथ्वी के ध्वस्त होने की खलबली।
19 दिसम्बर, 2012
अंधे समय का जाल
बिछा है अंधे समय का जाल
फंसना नहीं उसमें
बच बचाकर निकल जाना राह अपनी
नहीं बनना दूसरे की ढाल
यदि अकेले हो डगर में
चले चलते ही रहें
लक्ष्य का संधान करते
चाह की अंजुरी पसारे
प्रीति-रस से उसे भऱ लें
और गतिमय करें अपनी चाल...
कोशिशों से नहीं मिलती
जिन्दगी की चाह
बस निरत चलते रहे
आकांक्षा की राह
काले समय से संघर्ष करते
गरल पीते
किन्तु मन में सृजित करते
प्रीति का मधुमास
बनते हृदयकुंज-मराल...।
जब दिशाएं अंधकार में डूबी हो
और बहुत दूर दिगन्त के पार
रोशनी हाथों में किरणों की मेहदी लगाती हो
तारे अदृश्य-पथ-गामी के करपाती -उत्सव में शरीक होने
अन्तरिक्ष की राह चले जाते हों
अतीत मिटाता है वर्तमान की काल-रेखा..
मनुष्य अपने कर्मों पर जीता है
कर्मों का संस्कार छोड़ जाता है
जिसे भविष्य अपने ढंग से रुपायित करता
वैसा नहीं होता जैसा हमने सोचा
और बनाया आकांक्षा का भाग्य-सेतु
युगों से हटा नहीं सके आत्मघाती- राहु केतु
जो भाग्य को प्रताड़ित करते
और हमारे अस्तित्व के विकास को कर देते अनदेखा..
एक अदृश्य शक्ति जो समय के साथ मिलकर
हमारे प्रारब्ध को तरह-तरह से बनाती विगाड़ती
और हम वर्तमान की चौखट पर खड़े होकर
देखते निर्माण और विध्वंस
हम अभावों की शीत लहरी में निरुपाय
भीतर जलती आक्रोश ज्वाला में
अपने हाथ सेंकते रहे
मांगते रहे अपना दाय
ऐसे में वर्तमान को शीघ्रता से जाते देखा
लिखी जाती रही अनवरत भाग्य लेखा।
11 दिसम्बर, 2012
समय का दिया
समय ने जैसा दिया दिया
उसके प्रकाश में यह जीवन जिया
अपना सर्वस्व समष्टि को दिया
अस्तित्व के लिए ही तो कर्म-अकर्म किया।
12 दिसम्बर, 2012
स्थितियों से साक्षात्कार
मुझे घूर-घूर कर मत देखो
मरे घर, मेरी सुविधाओं की ओर नजर मत फेंको
मैं कैसे जीवन-यापन करता हूं
उसे भी मत देखो
सिर्फ देखो कि मैंने क्या किया
और यह भी कि
दुखद विसंगतियों, प्रवंचनाओं और
विपरीत स्थितियों में कैसे जिया...
मुझे घूर-घूर कर मत देखो
कम से कम इतना भर करो
कि भीतर जो प्रपंचवादी बैठा है
उसे निकाल कर दूर भगाओ,
स्थितियों को सही सही देखो
और यह भी कि तुमने क्या किया...।
13 दिसम्बर, 2012
मेरी-तेरी गति
तू डाल डाल
मैं पात पात
तू अंधकार
मैं नव प्रभात
तू धरा प्राण-उर्वर माटी,
मैं अंकुर हूं
युग की थाती
तू बने दिया, मैं बाती
इस अंधेरे समय में
दोनों ही चलें साथ-साथ।
14 दिसम्बर, 2012
तन्मयता के क्षणों के बीच
प्राण गर्भा आत्मीय तन्मयता के क्षणों को
कौन कितने दिन याद कर पाता है भला
स्मृतियों का सिलसिला
समय के पतझर में झर जाता है
जिस सपने को चाहत का औदार्य समझ
सीने से लगा रखा था
वह आश्विन के यूथ भर्ष्ट बादल की तरह
हृदय-आकाश से ओझल हो जाता है
सब कुछ सरे आम होता है
कहीं कोई छिपाव, दुराव, भटकाव नहीं
सब कुछ बसन्त में खिले
फूल की तरह होता है
जिसकी पंखुड़ियों का रस पीकर
मदमस्त हो जाता है
अलिन्द
कितने सारे प्रेम-विभोर मरते हैं
दिए की जलती वर्तिका में आत्मघात करते हैं
पूरे आत्मसंवेदी संस्कार के साथ मरत हैं
वे नहीं याद कर पाते
अपने जल मरने की संगति
आत्मसात कर लेते जीवन की इति
किन्तु हम जीने और मरने का हिसाब नहीं रख पाते
प्रेम-सुख भोगते, उसके खट्टे मीठे फलों को चखते हैं
भले ही प्रवंचना का खेल खेलते हैं
जय-विजय का सुख-दुख झेलते हैं
और फिर सब कुछ भूल जाते हैं
भला कौन मुट्ठी में भर
बालू के कणों को सहेज पाया है
पूरे मनसे आत्मसात कर सका है
प्राणगर्भा प्रेमीले तन्मयता के क्षणों को।
15 दिसम्बर, 2012
जीवन का धूप-छांव
हमें अपने पथ पर
आगे बढ़ने का साहस देता
फिर जब थके पांव चलने में असमर्थ होते
अतीत को याद करते
अवसाद में आहें भरते
यही जीवन का क्रम है
और इतिहास घटनाओं, उपघटनाओं का व्यक्तिक्रम है
जिसके बीच हम
अपने अस्तित्व को संजोते हैं
कर्म की माटी में शब्द-ज्ञान बीज बोते हैं
अतीत को सीने से लगाए जीते हैं
स्मृतियों के टूटे दर्पण में अपना चेहरा देखते
आत्मसात करते तन्मयता के क्षणों को।
17 दिसम्बर, 2012
नदी प्रवाह
नदी यूं ही नहीं बनती
सदियों तक हवा पत्थरों को तराशथी है
ऊंचे गिरि शिखर, गलेसियर
बर्फाच्छादित चट्टाने
अपने हृदय का प्यार पथरीली ऊंचाई से गिरते
सफेद झरनों के जल में विसर्जित करते
एक प्रवाह को जन्म देते
उसी से बनती है नदी...
जैसे-जैसे ऊंचाई से गिरकर
जल धाराएं समतल में आती हैं
अपने साथ
ऊंचे-शिखरों, ग्लेशियर,
बर्फाच्छादित चट्टानों का प्यार
धरती जनों के लिए लाती हैं
नदी पर्वत की थाती है
जो सदा रहती अपने प्रवाह से बंधी...
नदी खेतों, बनो, जंगलों को
देती अपना जल
जिससे उपजती फसल
हरियाली फूलती फलती
पैदा करती फूल, फल
सदियों से जीवन पोषित करती नदी
अपने कर्म से सधी...।
18 दिसम्बर, 2012
पंडितों की भविष्यवाणी
शीत लहर चली
मौसम हुआ ठंड का बाहुबली
ठंड से कांपते लोग, मरते लोग
मच गई है गांव से शहर तक
पृथ्वी के ध्वस्त होने की खलबली।
19 दिसम्बर, 2012
अंधे समय का जाल
बिछा है अंधे समय का जाल
फंसना नहीं उसमें
बच बचाकर निकल जाना राह अपनी
नहीं बनना दूसरे की ढाल
यदि अकेले हो डगर में
चले चलते ही रहें
लक्ष्य का संधान करते
चाह की अंजुरी पसारे
प्रीति-रस से उसे भऱ लें
और गतिमय करें अपनी चाल...
कोशिशों से नहीं मिलती
जिन्दगी की चाह
बस निरत चलते रहे
आकांक्षा की राह
काले समय से संघर्ष करते
गरल पीते
किन्तु मन में सृजित करते
प्रीति का मधुमास
बनते हृदयकुंज-मराल...।
20 दिसम्बर, 2012
पुरुषार्थ
मैं युद्ध में टूटी हुई प्रत्यंचा से लड़ने के बजाय
नया शस्त्र बनाने की प्रक्रिया में
भूल गया इतिहास धर्मा-मर्म
कि टूटी प्रत्यंचा से बना शस्त्र
युद्ध में कारगर नहीं होता
नहीं होता सफल यश-
पुरुषार्थ का सत्कर्म।
मैं युद्ध में टूटी हुई प्रत्यंचा से लड़ने के बजाय
नया शस्त्र बनाने की प्रक्रिया में
भूल गया इतिहास धर्मा-मर्म
कि टूटी प्रत्यंचा से बना शस्त्र
युद्ध में कारगर नहीं होता
नहीं होता सफल यश-
पुरुषार्थ का सत्कर्म।
21 दिसम्बर, 2012
समय-ऋणी
मैं मन की तराजू पर
जीवन का समतुलन
ठीक करता रहा
कर्म की फसल
प्राण-संवेदना के खेत -खलिहान से
काटपीट-माड़ कर
घर लाया
जिसे ऋण के बदले
भाग्य के बनिया को थमाया
किन्तु ऋण टा नहीं पाया
बनिया की लोभ लाभी चतुराई से
ऋण का ब्याज
बढ़ता रहा
और आदमी का मूल्य घटता रहा
ऐसे मैं बाजार का मिजाज
परवान चढ़ता रहा
मैं घटते बढ़ते मूल्य की मार सहता रहा
और समय का कर्ज भरता रहा।
22 दिसम्बर, 2012
आजादी का मंजर
जन-जन है त्रस्त
कैसा आजादी का मंजर
सोने का हाथी
मैं मन की तराजू पर
जीवन का समतुलन
ठीक करता रहा
कर्म की फसल
प्राण-संवेदना के खेत -खलिहान से
काटपीट-माड़ कर
घर लाया
जिसे ऋण के बदले
भाग्य के बनिया को थमाया
किन्तु ऋण टा नहीं पाया
बनिया की लोभ लाभी चतुराई से
ऋण का ब्याज
बढ़ता रहा
और आदमी का मूल्य घटता रहा
ऐसे मैं बाजार का मिजाज
परवान चढ़ता रहा
मैं घटते बढ़ते मूल्य की मार सहता रहा
और समय का कर्ज भरता रहा।
22 दिसम्बर, 2012
आजादी का मंजर
जन-जन है त्रस्त
कैसा आजादी का मंजर
सोने का हाथी
और चांदी का बन्दर
दूध जैसी नदी
और खारा समुन्दर...
भाव हुए बेभाव
और अर्थ हुए अनर्थ
वोटों की लड़ाई में जीवन विनार्थ
जनता है मरी डरी
नेता सिकन्दर
सोने का हाथी
चांदी का बन्दर।
23 दिसम्बर, 2012
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