Friday 14 December 2012

भाग्य रेत

मैंने जब जब मुट्ठियों में भरा है भाग्य रेत
जब जब चला हूं अगाध, अनन्त सागर तट पर
नव शब्द-क्षितिजों की खोज में शरीक होने
महाकाल के उत्सव-झेज में
और घूमता रहा यात्रा पूरा करता दुर्निवार
ब्रमाण्ड के आर पार
और जब
उजले पंख खोले उड़ती है सुनहरी धूप
जब अंधकार को काल-मुक्त करता प्रकाश
उस समय भी
मैं अपनी अस्मिता का संकट झेलता मुट्ठियों में भरे रेत
जन-जन के साथ होता
पूरे तन-मन समेत

                                                        10 अगस्त, 2012





यात्रा की प्रतीक्षा

मैं छोड़ना नहीं चाहता
आधे तीहे रास्ते पर अपना गन्तव्य पथ
चाहे जितने हों पांव श्लथ
संघर्ष-रक्त-लत-पथ
मुझे अभीष्ट तक जाना है
भले ही अनात्म-शब्दाचारियों की भीड़
मुझ पर आक्रमण करती रहे
मुझे अपने कृतित्व को ऊंचाई तक ले जाना है

मैं देना चाहता हूं अपना सर्वस्व
जिन्हें चाहिए नया सूर्य
और मैं सुन रहा हूं रास्ते के दोनों ओर
भीड़ की आवाज,
नारे, गान जिनमें झंकृत हो रहा है
इतिहास का अवदान
आह! उस समय का ऋण चुकाना है
जो आज भी लेकर चल रहा हूं
सहेज कर रखना है गत-विगत
छोड़ना नहीं चाहता अभी गन्तव्य-पथ

                                                 11 अगस्त, 2012





चलते जाना है गन्तव्य पथ पर

जब दुख में कोी साथ नहीं देता हो
अन्तर गता का दायरा घटता हो
और अपमान बोध का असहज अवदान का बोझ हो
हमें चलते जाना है अपने गन्तव्य-पथ पर
किसी से कोई अपेक्षा न कर
गाते जाना है एकाकी स्वर
किस तरह दुःसह स्थितियों में
समय-सार थी तीव्र गति से
अस्तित्व की काली सड़क पर
भाग रहा है कर्म-विरत
विगत की कंटीली झाड़ियों के बीच
कामना के घोड़ों की लगाम खींच

                                   13 अगस्त, 2012





जीवन चक्र

कितना कुछ घटना है हमारे ईर्द-गिर्द
मनुष्य में सर्जनात्मक शक्ति से बढ़कर
सहारक प्रकृति अधिक होती है
उसकी प्रज्ञा अपने वातावरणसे
नया तत्व ग्रहण करती है
आदि मानव अपने मानव-धर्म को
तरह-तरह से विवेचित, प्राचरित, प्रसारित करता रहा
कई तरह के गोत्र बनाए
जातियों को अपने स्वार्थ के लिए विभाजित किया
इसके लिए मनुष्यता का अकल्पनीय रक्त बहा
और एक विशेष महत्वकांक्षी वर्ग के आदेशों पर
आज तक जीता रहा
आदमी लाभ-लोभ का रास्ता चुन लिया
समाज, धर्म, सत्य-असत्य की नई परिभाषाएं किया-
धर्माचार्यों से लेकर शागिर्द...

कितना कुछ घटता है हमारे इर्द-गिर्द
हर तरह से प्रत्येक विन्दुओं पर
अपनी हविष के लिए
मनुष्य पराजित, प्रताड़ित होता रहा
विद्वेष, हिंसा-अहिंसा, घात-प्रतिघात
जाति, वर्ण, देश की सीमाओं की नैतिक, मान्य
रेखाओं को पद दलित कर
अपनी विजय का झंडा
असंख्य मारे गए लोगों की लाशों पर गाड़ दिया
इसी तरह चलता रहा
मानव-अस्तित्व चक्र, करता सुख, आनन्द निष्फल
हमारे बाहर भीतर प्रतिक्षण, प्रतिपल


                                                           14 अगस्त, 2012





मनुष्य का भाग्य

समय बुनता है अस्तित्व-जाल
नियम पूर्वक लिखता मनुष्य की भाग्य-लेखा
और मिटाता जाता
उन शब्दों, वाक्यों को
जो अतीत की धरोहर रहे
कितना कुछ उसी अतीत को उच्छिष्ट डोता
जिससे भविष्य का प्रणायन होता
अन्तर्बोध क्षण-प्रतिक्षण सहेजता
मनुष्य की भाग्य-अभाग्य का आलो-अंधकार
समय बुनता अस्तित्व जाल

                                                        15 अगस्त, 2012






समय की गति

सुबह से शाम तक
चलता रहता संघर्ष
दुःख-सुख, हर्ष-विमर्श
दुःसमय वेनिस के क्रुद्ध सांड की तरह फुफकारता
उद्दत करने को निर्णायक युद्ध
नियति की प्रत्यंचा से संघान करता
आत्मेन्द्रियों का मीन-लक्ष्य
करता भवित्वय-पथ अवरुद्ध

सुबह से शाम तक
अस्तित्व की सुरक्षा हेतु
विविध प्रलोभनों के बीच
आत्म-सत्ता के बचाव की कार्यकुशलता का एकात्मबोध
खोजाता निविड़ अंधकार में
होकर संस्कार-मुक्त
मनुष्यत्व का अभिनव-पथ हो अवरुद्ध
पग चलते जाते नियति की सड़क पर
चाहे अज्ञानी, मूर्ख हो अथवा महाप्रबुद्ध...



                                            16 अगस्त, 2012







गति

सुबह से शाम तक








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