मैं अपने को बार-बार फैलाता, सिकोड़ता,
कभी अवांछित स्थितियों से जोड़ता
कभी सारे बंधन तोड़ता
अकेलेपन, तटस्थ भावों के सैलाब में तैरता
सुनिश्चित तट तक पहुंच नहीं पाया
बस अपनी मुट्ठियों में
जो प्रारब्ध-सिक्ता लाया था
उसी से श्लथ-पथ पर चलता
नई दिशाएं खोजता, पथ मोड़ता
अतीत की पीड़ा औ टूटने का दुःख भूलकर
अपने को बार बार नये संबंधों से जो़ड़ता
किन्तु हर बार मुट्ठियों में थमी बालू
आत्मीयता की देवता को अर्पित नहीं कर पाता
नए परिवेश की रिक्तता को
अपने नव-बोध से भर नहीं पाता
हमेशा खालीपन जीना
अस्तित्व के लिए विपर्यय बन जाता
दर्द भरा मौन अन्तस् को मर्माहत करता।
11 जुलाई 2012
आदमी की असमर्थता
कितने सारे कोणों पर आदमी भय, आतंक, भाव-अभाव
और सत्ता-समाज की विसंगतियों के बीच संघर्षरत
अपने आक्रोश की राखाग्नि को बुझा नहीं पाता
कितने सारे विन्दुओं पर दिन-प्रति-दिन
पहर-दर-पहर आदमी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ता है
कहीं जीतता है
कहीं हारता है
कहीं मारता है
कहीं मरता है
उम्र भर हृदय के खालीपन को भरने का यत्न करता है
किन्तु खाली हाथ लिए चला जाता है
ऐसा क्या है कि आदमी
बार-बार संबंधों की प्रवंचना से छला जाता है
तिल तिलकर जैसे - जैसे अपने गन्तव्य पथ पर बढ़ता है
उसी के द्वारा बोए गए बबूल का कांटा पांवों और हृदय में गड़ता है
जीवन की आपाधापी में
आदमी अपने भीतर की शक्ति को पूरी तरह संयोजित नहीं पाता
संभवतः, इसीलिए जीवन पर्यन्त खालीपन की पीड़ा से मुक्त नहीं हो पाता
12 जुलाई 2012
वसीयत
मैं वसीयत लिखूंगा
आम्रकुंज के बीच चौपाल में बैठकर
जब तीव्र हवा में फड़फड़ाती होंगी पत्तियां
खिलती होंगी मन के उद्यान में किसिम किसिम की कलियां
मैं वसीयत लिखूंगा
धान के खेतों के बीच मेड़ पर बैठकर
जहां हरियाली का तना होगा वितान
पंछियों का उभरता होगा नवगान
मैं लिखूंगा वसीयत
समय के अंतिम छोर पर बैठ
महाकाल-प्रवाह की उद्वेलित लहरों के
उत्थान-पतन को देखता अनाहत
अपनी चिरसंचित गठरी खोलूंगा
देखूंगा कितना कुछ अर्जित किया है
कैसे कैसे जिया है
कैसे कैसे एक बूंद अमृत के बदले
असंख्य बूंद विषपान किया है अनुरक्त -त्रस्त
मैं लिखूंगा वसीयत
सहज ही लिख दूंगा-
मेरे बाद मेरी संतान, सगे संबंधी
मेरी चल-अचल संपत्ति के हकदार होंगे
किन्तु जो पीड़ा और दुःख भोगा है
भला उसे किसके नाम लिख जाऊंगा?
13 जुलाई 2012
दिन का बुझता दिया
दिन बुझ गया
बूढ़ी धरती की कंपकपाती लालटेन की तरह
घिरते अंधकार में
टिमटिमाते तारों की रोशनी में
समय की अंगीठी में
रोटियां सेंकती है
किसके लिए यह धरती
सेवारत सजग रहती है
किसके लिए धरती युग-दर-युग सहेजती है
मनुष्य की महत्वाकांक्षा का विखरता क्षितीज
लालसा की प्रवाहित धारा, नवोत्सृज
हत्या-आत्महत्या, उत्पीड़न, अमानुषिकता
अत्याचार झेलती है अंधकारा
यह धरती ही चिरन्तन-ममत्व देती
हमारे सारे कर्मों की दृष्टा होती
हमारी खाली झोली में कुछ संप्रीति
कुछ प्रेम, कुछ कुंठा, कुछ प्रवंचना,
कुछ सुख, कुछ दुख, तितीक्षा बेपर्द
कुछ गिरती खाली पत्तियों का दर्द
जीवन और मृत्यु का जोड़-घटाव, संतुलन
असंतुलन का वातावरण बनाती
यह धऱती
हर स्थिति में
अपने असीम करुणाजनित प्रेम
अपने उत्सर्ग से, दया, ममता से
हमें नवजीवन दे जाती।
14 जुलाई 2012
शब्दभाव-चित्र
कितने सारे सार्थक और निरर्थक शब्दों की
भाव-व्यंजना करता आया
साहित्य की झोली में भरता रहा
तरह-तरह की अभिव्यकि्तयां, मन के उच्छ्वास,
नई नई संवेदना के मधुमास, कलियों के सौंदर्य,
अन्तस् के सितार पर झंकृत होते गान
मस्तिष्क के कैन्वश पर उभरते विवध चित्र अर्थवान
जिसे समष्टि की गैलरी में दर्शाता रहा
जिसके लिए प्राण-भित्ति-चौखट सजाया
मैं जीवन के सार्थक-पक्ष को उजागर करने आया
किन्तु धीरे-धीरे कैन्वश के ऊपर सर्जित
अपने चित्र विचित्र रंगों से बदरंग होते रहे
हमारी आत्मीयता के सत्य
मिथ्या-आवरण की ओट में
अपनी पहचान खोते रहे
वह लालित्य-कला-कौशल
जिसे शब्दों को नए अर्थ के साथ अपनाया
उसे ही तो जीवन को सार्थक करने के लिए
तरह-तरह के क्जों क्षितीज से
कई कई रंग खोजकर लाया
आत्म-कैन्वश के चित्रों को सजाया.....
15 जुलाई 2012
निजता का पैमाना
जोड़ लिया अपने को
हर असंभावित क्षणों के बीच
भुला दिए अच्छे-बुरे, ऊंच नीच,
भुला दिए स्वर्णिम सपने को
सजाया संवारा अपने को
कभी शब्द-सारथी बना
इन्द्रियों को अश्व बनाया
उन्हें महत्वाकांक्षाओं के रथ में जोता
लगाया मैंने कई बार समय-प्रवाह में गोता
अपने को हर बाधाओं से खींच
फिर जो कुछ पाया
उसी से जीवन का उजड़ा हुआ घर बसाया
जो घर उजाड़ने वाले थे
आफत के परनाले थे
उनकी भी टोह लिया
हर तरह से अपने को नियंत्रित कर जोड़ लिया
जो भी बचा है शेष मुझमें
उसी के साथ
वही तो हूं,
वहीं तो हूं।
17 जुलाई 2012
एकाकीपन
बहुत सारे संदर्भों के बीच
जीवन अस्तित्व वृक्ष को
कर्मों के जल से सींचता रहा
दिशाओं की डोर
अपने हृदय में पल रही
आकांक्षा से बांधने का
सहज प्रयास करता रहा
काल प्रवाह की गति से
अपने को पगबद्ध करता रहा
सभी विमर्ष से खींच
अतीत और वर्तमान के संदर्भों के बीच
एक डोर से बंधकर,
जो जन्म के साथ बंध गई है
और एक आकांक्षा है
जो प्रेम की राह पर सध गई है
उसी से अपने को छलता रहा
डगमग पग चलता रहा
अपने को सब तरह से सभी प्रसंगों से खींच
दिन प्रति दिन पलता रहा
आत्मीय-अनात्मीय संदर्भों के बीच
18 जुलाई 2012
कभी अवांछित स्थितियों से जोड़ता
कभी सारे बंधन तोड़ता
अकेलेपन, तटस्थ भावों के सैलाब में तैरता
सुनिश्चित तट तक पहुंच नहीं पाया
बस अपनी मुट्ठियों में
जो प्रारब्ध-सिक्ता लाया था
उसी से श्लथ-पथ पर चलता
नई दिशाएं खोजता, पथ मोड़ता
अतीत की पीड़ा औ टूटने का दुःख भूलकर
अपने को बार बार नये संबंधों से जो़ड़ता
किन्तु हर बार मुट्ठियों में थमी बालू
आत्मीयता की देवता को अर्पित नहीं कर पाता
नए परिवेश की रिक्तता को
अपने नव-बोध से भर नहीं पाता
हमेशा खालीपन जीना
अस्तित्व के लिए विपर्यय बन जाता
दर्द भरा मौन अन्तस् को मर्माहत करता।
11 जुलाई 2012
आदमी की असमर्थता
कितने सारे कोणों पर आदमी भय, आतंक, भाव-अभाव
और सत्ता-समाज की विसंगतियों के बीच संघर्षरत
अपने आक्रोश की राखाग्नि को बुझा नहीं पाता
कितने सारे विन्दुओं पर दिन-प्रति-दिन
पहर-दर-पहर आदमी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ता है
कहीं जीतता है
कहीं हारता है
कहीं मारता है
कहीं मरता है
उम्र भर हृदय के खालीपन को भरने का यत्न करता है
किन्तु खाली हाथ लिए चला जाता है
ऐसा क्या है कि आदमी
बार-बार संबंधों की प्रवंचना से छला जाता है
तिल तिलकर जैसे - जैसे अपने गन्तव्य पथ पर बढ़ता है
उसी के द्वारा बोए गए बबूल का कांटा पांवों और हृदय में गड़ता है
जीवन की आपाधापी में
आदमी अपने भीतर की शक्ति को पूरी तरह संयोजित नहीं पाता
संभवतः, इसीलिए जीवन पर्यन्त खालीपन की पीड़ा से मुक्त नहीं हो पाता
12 जुलाई 2012
वसीयत
मैं वसीयत लिखूंगा
आम्रकुंज के बीच चौपाल में बैठकर
जब तीव्र हवा में फड़फड़ाती होंगी पत्तियां
खिलती होंगी मन के उद्यान में किसिम किसिम की कलियां
मैं वसीयत लिखूंगा
धान के खेतों के बीच मेड़ पर बैठकर
जहां हरियाली का तना होगा वितान
पंछियों का उभरता होगा नवगान
मैं लिखूंगा वसीयत
समय के अंतिम छोर पर बैठ
महाकाल-प्रवाह की उद्वेलित लहरों के
उत्थान-पतन को देखता अनाहत
अपनी चिरसंचित गठरी खोलूंगा
देखूंगा कितना कुछ अर्जित किया है
कैसे कैसे जिया है
कैसे कैसे एक बूंद अमृत के बदले
असंख्य बूंद विषपान किया है अनुरक्त -त्रस्त
मैं लिखूंगा वसीयत
सहज ही लिख दूंगा-
मेरे बाद मेरी संतान, सगे संबंधी
मेरी चल-अचल संपत्ति के हकदार होंगे
किन्तु जो पीड़ा और दुःख भोगा है
भला उसे किसके नाम लिख जाऊंगा?
13 जुलाई 2012
दिन का बुझता दिया
दिन बुझ गया
बूढ़ी धरती की कंपकपाती लालटेन की तरह
घिरते अंधकार में
टिमटिमाते तारों की रोशनी में
समय की अंगीठी में
रोटियां सेंकती है
किसके लिए यह धरती
सेवारत सजग रहती है
किसके लिए धरती युग-दर-युग सहेजती है
मनुष्य की महत्वाकांक्षा का विखरता क्षितीज
लालसा की प्रवाहित धारा, नवोत्सृज
हत्या-आत्महत्या, उत्पीड़न, अमानुषिकता
अत्याचार झेलती है अंधकारा
यह धरती ही चिरन्तन-ममत्व देती
हमारे सारे कर्मों की दृष्टा होती
हमारी खाली झोली में कुछ संप्रीति
कुछ प्रेम, कुछ कुंठा, कुछ प्रवंचना,
कुछ सुख, कुछ दुख, तितीक्षा बेपर्द
कुछ गिरती खाली पत्तियों का दर्द
जीवन और मृत्यु का जोड़-घटाव, संतुलन
असंतुलन का वातावरण बनाती
यह धऱती
हर स्थिति में
अपने असीम करुणाजनित प्रेम
अपने उत्सर्ग से, दया, ममता से
हमें नवजीवन दे जाती।
14 जुलाई 2012
शब्दभाव-चित्र
कितने सारे सार्थक और निरर्थक शब्दों की
भाव-व्यंजना करता आया
साहित्य की झोली में भरता रहा
तरह-तरह की अभिव्यकि्तयां, मन के उच्छ्वास,
नई नई संवेदना के मधुमास, कलियों के सौंदर्य,
अन्तस् के सितार पर झंकृत होते गान
मस्तिष्क के कैन्वश पर उभरते विवध चित्र अर्थवान
जिसे समष्टि की गैलरी में दर्शाता रहा
जिसके लिए प्राण-भित्ति-चौखट सजाया
मैं जीवन के सार्थक-पक्ष को उजागर करने आया
किन्तु धीरे-धीरे कैन्वश के ऊपर सर्जित
अपने चित्र विचित्र रंगों से बदरंग होते रहे
हमारी आत्मीयता के सत्य
मिथ्या-आवरण की ओट में
अपनी पहचान खोते रहे
वह लालित्य-कला-कौशल
जिसे शब्दों को नए अर्थ के साथ अपनाया
उसे ही तो जीवन को सार्थक करने के लिए
तरह-तरह के क्जों क्षितीज से
कई कई रंग खोजकर लाया
आत्म-कैन्वश के चित्रों को सजाया.....
15 जुलाई 2012
निजता का पैमाना
जोड़ लिया अपने को
हर असंभावित क्षणों के बीच
भुला दिए अच्छे-बुरे, ऊंच नीच,
भुला दिए स्वर्णिम सपने को
सजाया संवारा अपने को
कभी शब्द-सारथी बना
इन्द्रियों को अश्व बनाया
उन्हें महत्वाकांक्षाओं के रथ में जोता
लगाया मैंने कई बार समय-प्रवाह में गोता
अपने को हर बाधाओं से खींच
फिर जो कुछ पाया
उसी से जीवन का उजड़ा हुआ घर बसाया
जो घर उजाड़ने वाले थे
आफत के परनाले थे
उनकी भी टोह लिया
हर तरह से अपने को नियंत्रित कर जोड़ लिया
जो भी बचा है शेष मुझमें
उसी के साथ
वही तो हूं,
वहीं तो हूं।
17 जुलाई 2012
एकाकीपन
बहुत सारे संदर्भों के बीच
जीवन अस्तित्व वृक्ष को
कर्मों के जल से सींचता रहा
दिशाओं की डोर
अपने हृदय में पल रही
आकांक्षा से बांधने का
सहज प्रयास करता रहा
काल प्रवाह की गति से
अपने को पगबद्ध करता रहा
सभी विमर्ष से खींच
अतीत और वर्तमान के संदर्भों के बीच
एक डोर से बंधकर,
जो जन्म के साथ बंध गई है
और एक आकांक्षा है
जो प्रेम की राह पर सध गई है
उसी से अपने को छलता रहा
डगमग पग चलता रहा
अपने को सब तरह से सभी प्रसंगों से खींच
दिन प्रति दिन पलता रहा
आत्मीय-अनात्मीय संदर्भों के बीच
18 जुलाई 2012
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