वर्ष 2013 में प्रतिदिन लिखी कविताओं में से कुछ कविताएं अपने प्रिय पाठकों, मित्रों के लिए फेस बुक में उद्धृत हैं जिनमें वर्ष की अन्तिम कविता भी शामिल है
कविताएं हार्दिक शुभकानाओं सहित नव वर्ष के उपहार स्वरूप प्रस्तुत है।
- स्वदेश भारती
सोनाली फसल का अर्थ
सारा गांव फसल पकते ही
आनन्दोत्सव में मग्न हो जाता है
उसे पता होता है कि कितना धान (चावल) या गेहूं,
तिलहन, कितनी दाल मिल सकती है
खाने के लिए अन्न की कमी नहीं होगी
बागों में अमराई बौराती
कई कई पेड़ों में नन्हें नन्हें टिकोरे लगते
सूर्योदय की सतरंगी किरणों में
पके गेहूं की बालियां स्वर्णिम
चमकदार हो जाती
पूर्व क्षितिज की लोहित लावण्यभरी लालिमा
और दूर तक फैली सोनाली फसल
मन को अनजाने सुख-सौन्दर्य से भर जाती है
मैं गेहूं के खेत के मेंड पर उगी
हरी घास पर बैठा किसान के परिश्रम से पकी फसल
और प्रकृति का नैसर्गिक, सौन्दर्य देखकर
अनुमान लगा रहा हूं
सारे देश के परिश्रम से ही जन जन की भूख
और किसानों की अभावग्रस्तता, दुर्भिक्षता के विरुद्ध
सत्ता की बैसाखियों को परे हटाकर
स्वच्छन्द जिन्दगी जीने को मिलती है
टूटी फूटी झोपड़ी में कंडी के उठते धुएं के बीच
तवे पर रोटी पकती है
भूखे, नंगे बच्चों के कुम्हलाए मुख पर
खुशी की कली खिलती है।
झाउ का पुरवा (प्रतापगढ़)
2 अप्रैल, 2013
मनुष्य की चाहत
मनुष्य की चाहत अनन्त है
उसी चाहत की डोर पकड़
वह चढ़ना चाहता है सातवें आसमान पर
बाहों में आकांक्षाएं भर
और यही चाहत बनती
लोभ, मोह, क्षोभ, जय-विजय, प्रेम-अप्रेम
लाभ-हानि, सुख-दुख की जड़....
यही चाहत ही सबसे अधिक बलवंत है
सत्ता की कुर्सी चीखकर कहती है
अधिक चाहत, सर्वोपरि आकांक्षा, हंसी, शोक
मन में मत पालो
सुखी हो इहलोक, तब परलोक
पहले फैलाओ जन-जन में आलोक
सभी हों सुखी, स्वस्थ, धन-धान्य भरा
हरीतिमा, सुषमा, फूलों, फलों से भरी हो
हमारी शाश्वत माता वसुन्धरा
नियंत्रित करो चाहत समष्टि के लिए
मजबूत करो अपनी जड़
कदम दर कदम आगे बढ़
झाउ का पुरवा (प्रतापगढ़)
3 अप्रैल, 2013
सम्बन्धों की प्रवंचना
एक छद्म आवरण ओढ़े हैं
प्रत्येक आदमी और
कितनी तरह से संप्रीति की
गाढे बांधकर
सम्बन्धों को जोड़े हैं
फिर भी कहता
यह प्रवंचना थोड़े हैं।
झाउ का पुरवा (प्रतापगढ़)
4 अप्रैल, 2013
गांव-गिरांव फटेहाल
सबेरे की पीली धूप चैत्र मास की
मृदुल, मृदुल उष्मा ठंडी हवा के थिरकत्ते पांव
पकी गेहूं की सोनाली फसल
नृत्य करते एक हृदय ग्राही दृश्य उपस्थित करते
पल्लि पथ पर गायों, भैंसों का रंभाना
चारागाह की ओर प्रसन्नचित्त जाना
हृदय को पृथ्वी धन और पशुधन के
विविध रूपों से भरता है
चरवाहा गाता है चौताल बिरहा
कान पर हाथ रखकर
जैसे उससे बड़ा-गवैया संसार में कोई नहीं
फूटते हैं लाल टेसू कहीं कहीं
अर्पित करता अपना रस भरा फूल
मन्दिर में देवी भवानी को अर्पित किए जल को
पीता गांव का भूखा झबरैला-टामी
जो रात भर घरों की रखवाली करता
और किसी कूड़े की ढेर में दुबक कर सो जाता
गांव में बसते गरीब अमीर नामी गिरामी
किन्तु सभी एक दूसरे को टेढी आंखों से देखते
यह विसंगति मन को आहत करती
और यह संकेत देती कि
आजादी के पैंसठ साल बाद भी नहीं हुआ विकास
और गांव का सिवान करता रहा अट्ठास।
झाउ का पुरवा (प्रतापगढ़)
9 अप्रैल, 2013
ईश्वर के अधीन
न जाने क्यों ईश्वर ने
पृथ्वी बनाई विशाल और सुन्दर
फिर उसे दिया असीमित
मनोरम सौंदर्य शुष्मा हरीतिमा
तरह-तरह के पेड़, पौधों से रचे सघन जंगल
बर्फाच्छादित पर्वत-शिखर, बादल
नदिया, सागर
बनाए किसिम-किसिम के फूल, पौधे,
धनधान्य भरे खेत, बाग, गांव, नगर
बनाये उसने स्त्री, पुरुष,
विविध दुग्धधारी पशु,
रंग विरंगे पक्षी सुन्दर
दिए मानव को ज्ञान प्रखर
विज्ञान, कला से भरा जीवन
आनन्द, संप्रीति-स्फुरण
और दिए उपादान सुख, शान्ति का वरण
किन्तु ईश्वर ने क्यों दिए
मानव को लोभ, लिप्सा, आकांक्षा, अहंकार
काम, क्रोध, भोग-संचरण
क्यों दिए ईश्वर ने मनुष्य को
वासना, हिंसा, प्रतिहिंसा, पिपासा
सत्ता दोहन, दासता-जन्य परिभाषा
क्यों दिए तरह-तरह के विनाशक अस्त्र
क्यों दिए अमीरी, गरीबी, आशा दुराशा
क्यों दिए देव, मानव, दानव में
विनाश की प्रवृत्ति, आत्मक्षरण
कि एक समय हो जाएगा सर्वस्व इति
क्यों बनाए ऐसी दुनिया हे विश्वम्भर
इतनी सुन्दर प्रकृति...।
झाउ का पुरवा (प्रतापगढ़)
10 अप्रैल, 2013
गन्तव्य पथ के बीच
गन्तव्य पथ पर चलता रहा
आपद-तूफान, वर्षा, झंझावात के बीच
अपने विश्वास
और आस्था को
मन-मस्तिष्क से भींच
चलता रहा
वह जो सपना था मन के भीतर
नए नए रूपों में पलता रहा
सभी के हमारे अन्तस में सम्बन्धों की राख में
एक द्युतिमान चिन्गारी छिपी होती है
जो समय असमय जलती है धू धूकर
इस तरह हठात जलती है तो कुछ न कुछ
विध्वंस होता ही है
कभी आग सार्थक होती है
तो कभी निरर्थक होकर
जलाती है मन-मस्तिष्क निःस्वर
मैं भी उस आग में जलता रहा
और गन्तव्य-पथ पर चलता रहा
कभी-कभी ऐसा भी होता आया
कि अजाने सुख ने रोमांच दिया
सुखा डाला सोच की हरियाली को दुःख ने
और उसे ही प्रारब्ध का छोटा अंश मान लिया
नए-नए क्षितिजों में चलने की चाह से
मन का आइस वर्ग पिघलता रहा
मैं अपने गन्तव्य-पथ पर चलता रहा।
उत्तरायण (कोलकाता)
20 अप्रैल, 2013
कविताएं हार्दिक शुभकानाओं सहित नव वर्ष के उपहार स्वरूप प्रस्तुत है।
- स्वदेश भारती
सोनाली फसल का अर्थ
सारा गांव फसल पकते ही
आनन्दोत्सव में मग्न हो जाता है
उसे पता होता है कि कितना धान (चावल) या गेहूं,
तिलहन, कितनी दाल मिल सकती है
खाने के लिए अन्न की कमी नहीं होगी
बागों में अमराई बौराती
कई कई पेड़ों में नन्हें नन्हें टिकोरे लगते
सूर्योदय की सतरंगी किरणों में
पके गेहूं की बालियां स्वर्णिम
चमकदार हो जाती
पूर्व क्षितिज की लोहित लावण्यभरी लालिमा
और दूर तक फैली सोनाली फसल
मन को अनजाने सुख-सौन्दर्य से भर जाती है
मैं गेहूं के खेत के मेंड पर उगी
हरी घास पर बैठा किसान के परिश्रम से पकी फसल
और प्रकृति का नैसर्गिक, सौन्दर्य देखकर
अनुमान लगा रहा हूं
सारे देश के परिश्रम से ही जन जन की भूख
और किसानों की अभावग्रस्तता, दुर्भिक्षता के विरुद्ध
सत्ता की बैसाखियों को परे हटाकर
स्वच्छन्द जिन्दगी जीने को मिलती है
टूटी फूटी झोपड़ी में कंडी के उठते धुएं के बीच
तवे पर रोटी पकती है
भूखे, नंगे बच्चों के कुम्हलाए मुख पर
खुशी की कली खिलती है।
झाउ का पुरवा (प्रतापगढ़)
2 अप्रैल, 2013
मनुष्य की चाहत
मनुष्य की चाहत अनन्त है
उसी चाहत की डोर पकड़
वह चढ़ना चाहता है सातवें आसमान पर
बाहों में आकांक्षाएं भर
और यही चाहत बनती
लोभ, मोह, क्षोभ, जय-विजय, प्रेम-अप्रेम
लाभ-हानि, सुख-दुख की जड़....
यही चाहत ही सबसे अधिक बलवंत है
सत्ता की कुर्सी चीखकर कहती है
अधिक चाहत, सर्वोपरि आकांक्षा, हंसी, शोक
मन में मत पालो
सुखी हो इहलोक, तब परलोक
पहले फैलाओ जन-जन में आलोक
सभी हों सुखी, स्वस्थ, धन-धान्य भरा
हरीतिमा, सुषमा, फूलों, फलों से भरी हो
हमारी शाश्वत माता वसुन्धरा
नियंत्रित करो चाहत समष्टि के लिए
मजबूत करो अपनी जड़
कदम दर कदम आगे बढ़
झाउ का पुरवा (प्रतापगढ़)
3 अप्रैल, 2013
सम्बन्धों की प्रवंचना
एक छद्म आवरण ओढ़े हैं
प्रत्येक आदमी और
कितनी तरह से संप्रीति की
गाढे बांधकर
सम्बन्धों को जोड़े हैं
फिर भी कहता
यह प्रवंचना थोड़े हैं।
झाउ का पुरवा (प्रतापगढ़)
4 अप्रैल, 2013
गांव-गिरांव फटेहाल
सबेरे की पीली धूप चैत्र मास की
मृदुल, मृदुल उष्मा ठंडी हवा के थिरकत्ते पांव
पकी गेहूं की सोनाली फसल
नृत्य करते एक हृदय ग्राही दृश्य उपस्थित करते
पल्लि पथ पर गायों, भैंसों का रंभाना
चारागाह की ओर प्रसन्नचित्त जाना
हृदय को पृथ्वी धन और पशुधन के
विविध रूपों से भरता है
चरवाहा गाता है चौताल बिरहा
कान पर हाथ रखकर
जैसे उससे बड़ा-गवैया संसार में कोई नहीं
फूटते हैं लाल टेसू कहीं कहीं
अर्पित करता अपना रस भरा फूल
मन्दिर में देवी भवानी को अर्पित किए जल को
पीता गांव का भूखा झबरैला-टामी
जो रात भर घरों की रखवाली करता
और किसी कूड़े की ढेर में दुबक कर सो जाता
गांव में बसते गरीब अमीर नामी गिरामी
किन्तु सभी एक दूसरे को टेढी आंखों से देखते
यह विसंगति मन को आहत करती
और यह संकेत देती कि
आजादी के पैंसठ साल बाद भी नहीं हुआ विकास
और गांव का सिवान करता रहा अट्ठास।
झाउ का पुरवा (प्रतापगढ़)
9 अप्रैल, 2013
ईश्वर के अधीन
न जाने क्यों ईश्वर ने
पृथ्वी बनाई विशाल और सुन्दर
फिर उसे दिया असीमित
मनोरम सौंदर्य शुष्मा हरीतिमा
तरह-तरह के पेड़, पौधों से रचे सघन जंगल
बर्फाच्छादित पर्वत-शिखर, बादल
नदिया, सागर
बनाए किसिम-किसिम के फूल, पौधे,
धनधान्य भरे खेत, बाग, गांव, नगर
बनाये उसने स्त्री, पुरुष,
विविध दुग्धधारी पशु,
रंग विरंगे पक्षी सुन्दर
दिए मानव को ज्ञान प्रखर
विज्ञान, कला से भरा जीवन
आनन्द, संप्रीति-स्फुरण
और दिए उपादान सुख, शान्ति का वरण
किन्तु ईश्वर ने क्यों दिए
मानव को लोभ, लिप्सा, आकांक्षा, अहंकार
काम, क्रोध, भोग-संचरण
क्यों दिए ईश्वर ने मनुष्य को
वासना, हिंसा, प्रतिहिंसा, पिपासा
सत्ता दोहन, दासता-जन्य परिभाषा
क्यों दिए तरह-तरह के विनाशक अस्त्र
क्यों दिए अमीरी, गरीबी, आशा दुराशा
क्यों दिए देव, मानव, दानव में
विनाश की प्रवृत्ति, आत्मक्षरण
कि एक समय हो जाएगा सर्वस्व इति
क्यों बनाए ऐसी दुनिया हे विश्वम्भर
इतनी सुन्दर प्रकृति...।
झाउ का पुरवा (प्रतापगढ़)
10 अप्रैल, 2013
गन्तव्य पथ के बीच
गन्तव्य पथ पर चलता रहा
आपद-तूफान, वर्षा, झंझावात के बीच
अपने विश्वास
और आस्था को
मन-मस्तिष्क से भींच
चलता रहा
वह जो सपना था मन के भीतर
नए नए रूपों में पलता रहा
सभी के हमारे अन्तस में सम्बन्धों की राख में
एक द्युतिमान चिन्गारी छिपी होती है
जो समय असमय जलती है धू धूकर
इस तरह हठात जलती है तो कुछ न कुछ
विध्वंस होता ही है
कभी आग सार्थक होती है
तो कभी निरर्थक होकर
जलाती है मन-मस्तिष्क निःस्वर
मैं भी उस आग में जलता रहा
और गन्तव्य-पथ पर चलता रहा
कभी-कभी ऐसा भी होता आया
कि अजाने सुख ने रोमांच दिया
सुखा डाला सोच की हरियाली को दुःख ने
और उसे ही प्रारब्ध का छोटा अंश मान लिया
नए-नए क्षितिजों में चलने की चाह से
मन का आइस वर्ग पिघलता रहा
मैं अपने गन्तव्य-पथ पर चलता रहा।
उत्तरायण (कोलकाता)
20 अप्रैल, 2013
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