Tuesday 31 December 2013

विश्रृंखला के बीच

आज तो हर ओर शोर है
हर ओर उत्श्रंखल शोर
नई-नई दावेदारी की आवाजें जुड़ जातीं
तनावग्रस्त चीखती चिल्लाती
दिन में भी ऐसा अंधकार छा जाता
समझ में नहीं आता रात है या भोर
हर आदमी के सपने आहत हैं
उसका पथ रक्तरंजित है
लोभलाभी समय स्वार्थी राजनीति के कंधों पर
अपनी प्रत्यंचा ताने
आम जन का शिकार करने के लिए उद्यत है
राजनीति हर तरह से
आजमाती है अपना जोर...

आखिर यह सिलसिला कब तक चलेगा
असहाय आमजन
कब तक अपना हाथ मलेगा,
अभावग्रस्त चिर-प्रगाढ़ निद्रा में सो जाएगा
इसी अमोघ निंद्रा, असमर्थता, किंकर्तव्यविमूढ़ता के तई
हम सदियों तक पराधीन रहे
ईरानी, अरबी, अफगान, मंगोल, मुगल
घोड़ों के टापों से हमारी अस्मिता रौंदते रहे
हमारी संस्कृति को पद दलित करते रहे
और बन गए शहंशाह
हम रह गए अघोर
आज भी पूरी आजादी के लिए उठ रहा शोर

                                 कोलकाता,
                                 22 अप्रैल, 2013







चलो बांधे नाव को उस पार वन्धु

चलो बांधे नाव को उस पार बन्धु
हृदय-सागर के किनारे
आत्ममन - विश्वास से बनी सुन्दर, सौम्य, सुखकर
भाव-श्रद्धा, संप्रीति रचित तटनी को चलाएं
समय की उत्ताल लहरों में मन की सधी
पतवार नियंत्रित कर
नहीं माने हार वन्धु
हृदय की उत्ताल लहरों से प्रकपित
जब भी नाव डगमग डोलती
खोलती अनबूझ अंतर व्यथा- कथा
सहती आलोड़न
चलती मौन के मझधार में अतिशय तरंगित
आत्म बल का बोझ लादे
और ला दे तीव्र अभिलाषा कि
पहुंचे सिन्धु के उस पार
काटे प्रीति की मझधार वन्धु
चलो बांधे नाव को उस पार वन्धु


                                 कोलकाता,
                                 24 अप्रैल, 2013





 चेतना की धार

चेतना की धार प्रवाहित होती पहले सीधे
फिर दाएं बाएं घूमती हुई
मन की रेत को जहां तहां बहा ले जाती
फिर कई अंतर्रधाराएं जन्म लेती
मस्तिष्क ग्लेशियर से गर्वोन्नत कल कल
छल छल गिरती हैं छन्दबद्ध अथवा छन्द विच्यूत
धार कई कई रूपों में प्रवाहित होती
वृहत्तर प्राण-शोक सर्जित करती
जल से तृप्त करती बिनारीते
उकेरती नव-बीज, स्फुरित करती
धन्य-धान्य भरा भू-गर्भा
हरित भरित कर प्राण में नवप्राण जोड़ती नवनीत...
मानव चेतना की घास कभी सूखती नहीं, न मिटती
समय परिवर्तन के साथ साथ
नव चेतना की धार अपनी दिशा बदलती
जीवन को हरिताम्बरा करती
नए-नए सुख-उष्मा से भरती
चेतना की धार प्रवाहित होती आत्मगत सीधे
मन संप्रीति का सेतु तोड़
इसी तरह कई कई युग बीते।


                                   कोलकाता,
                                   26 अप्रैल, 2013






शब्द और छन्द

मैं शब्द बनू और तुम छन्द
मैं बनू मधुप रस पराग रंजित
पंखुड़ियों में बन्द
तुम बनो रसराज बसन्त की कली
खिली खिली, मधुमादित माधुर्य, मोद भरी निरानंद
किन्तु समय होता बहुत बड़ा छली
जो पतझर बनकर अपने हाथों में
तूफान, चक्रवात लेकर आता
हमारे सपने चूर-चूर कर जाता
और मैं शब्द बनते बनते छन्द बन जाता हूं।

                                          कोलकाता,
                                        27 अप्रैल, 2013






वर्ष का अंतिम दिवस

वर्ष का अंतिम दिवस
कुछ इस तरह पैगाम लाया
दर्दमय था दौर सुख का
प्राण-दंशित और घातक
आत्म-पीड़क- दंड दुख का
वही सब प्रारब्ध में था
उसी में यह वर्ष बीता

प्राण-अंर्तद्वन्द में
चेतना के छन्द में
कामना के भग्न तारों पर
ध्वनित अनुराग
अन्तर-राग में
निस्सार वन यह वर्ष बीता

जो नियति में नियत था
बस वही पाया, उसे ही मन में संजोया
जो नहीं था, उसे खोया
वर्ष का अन्तिम दिवस
कुछ इस तरह पैगाम लाया
सार्थक है वही जो जितना जिया
साल का अंतिम दिवस
बस, अलविदा कह चल दिया

                                        कोलकाता,
                                       31 दिसम्बर, 2013

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